परकीया / सुमित्रानंदन पंत

विनत दृष्टि हो बोली करुणा,
आँखों में थे आँसू के घन,
‘क्या जाने क्या आप कहेंगे,
मेरा परकीया का जीवन!’

स्वच्छ सरोवर सा वह मानस,
नील शरद नभ से वे लोचन
कहते थे वह मर्म कथा जो
उमड़ रही थी उर में गोपन!
बोला विनय, ‘समझ सकता हूँ,
मैं त्यक्ता का मानस क्रंदन,
मेरे लिए पंच कन्या में
षष्ट आप हैं, पातक मोचन!

यदपि जबाला सदृश आपको
अर्पित कर अपना यौवन धन
देना पड़ा मूल्य जीवन का
तोड़ वाह्य सामाजिक बंधन!’

‘फिर भी लगता मुझे, आपने
किया पुण्य जीवन है यापन,
बतलाती यह मन की आभा,
कहता यह गरिमा का आनन!

‘पति पत्नी का सदाचार भी
नहीं मात्र परिणय से पावन,
काम निरत यदि दंपति जीवन,
भोग मात्र का परिणय साधन!

‘प्राणों के जीवन से ऊँचा
है समाज का जीवन निश्वय,
अंग लालसा में, समाजिक
सृजन शक्ति का होता अपचय!
‘पंकिल जीवन में पंकज सी
शोभित आप देह से ऊपर,
वही सत्य जो आप हृदय से,
शेष शून्य जग का आडंबर!

‘अतः स्वकीया या परकीया
जन समाज की है परिभाषा,
काम मुक्त औ’ प्रीति युक्त
होगी मनुष्यता, मुझको आशा!’

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