परछाईं का रहस्य / प्रांजलि अवस्थी
जब शाम चुभने लगती है
तब धूप के लिए प्यास जाग उठती है
वही धूप जो समूचा निगल जाती थी कभी
और छोड़ देती थी
कुछ परछाइयों के अस्थिपिंजर
कुछ रहस्य
जिनको फिर शाम के कहकहे
ये कहकर झुठला देते थे
कि वास्तविकता में क्यों जाना
अर्द्ध अपूर्ण असत्य कुछ नहीं
कुछ रहस्य धुँधले रहने दो
कुछ ताले टूटने के लिए नहीं होते
कुछ दरवाजे बिना कड़ी के होते है
ताकि कोई दस्तक
दीवारों की सुगबुगाहट में,
कौन होगा?
पर लगे अंदेशों को न सुन सके
धूप के सीने पर से जब
भारी शाम निकलती है
तो धौंक जाती है सुबह की छाती
और फिर
सुबह तलाशने पर मजबूर हो जाती है
उस रात को जो
हर आवश्यक / अनावश्यक कारण को
अपने गर्भ में
सही तरह से धारण कर सके
धूप में उपजे
विस्मयकारी रहस्य को जन्म देने के लिए