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परछाई / मनीष मूंदड़ा
Kavita Kosh से
एक अरसे बाद
आज अचानक
तुम्हारी परछाई से मैं मिला
वही सहजता
वही सुदृढ़ता
वही सम्पूर्णता
जो तुममें हुआ करती थी
मेरी उम्मीदों का जज्बा तो देखो
एक उम्र बीत चुकी है तुम्हारे गुजर जाने को
मुझमें आज भी जि़ंदा है
तुम्हारी परछाई का अहसास
कुछ टूटे से भ्रम
हलकी-सी आस
अभी भी शायद मुझमे बाकी है वह प्यास
जो हर अक्स में ढूँढती हैं तुम्हें
जो हर परछाई में संजोती हैं तुम्हें