परदेशी से / शिवदेव शर्मा 'पथिक'
सौ-सौ सावन बीत गए पर, एक बार भी आ न सके तुम!
धुला सजल नयनों का काजल
मैं विरहिन, मेरा मन चंचल
पलक खुले रह गए अचंचल
सौ-सौ दीप जलाए मैंने, छवि अपनी दिखला न सके तुम!
प्राण सिहरते रहे तड़पकर
मेघ गरजते रहे रातभर
पाती लिखूँ लेखनी थर-थर
ओ परदेशी! अपनापन का नाता मधुर निभा न सके तुम!
ओ मेरे निर्मम मनवासी
मैं पगली सावन की प्यासी
लिए जेठ की तपन, उदासी
कब से तुम्हें पुकार रही हूँ मलयज लहर उठा न सके तुम!
निशा अमावस, पावस बरसे
विरहिन मूक, हूक ले तरसे
करवट-करवट अँखिया बरसे
पल-पल सपन मिलन का आये, मिलकर नयन मिला न सके तुम!
पहर-पहर सुधि तुम्हें पुकारे
लहर-लहर पर कटे किनारे
थके आज दो नभ के तारे
डगर-डगर पर पलकें बिखरीं, चरण इधर को ला न सके तुम!
पँख नहीं जो उड़कर आऊँ
बंधे पाँव पग किधर बढ़ाऊँ
अब मैं कितने दीप जलाऊँ
ओ परदेशी! कब आओगे पाती एक पठा न सके तुम!
नारी-बंधी लाज की चेरी
पाँखों में पायल की बेड़ी
पुरुष अगम है छलना तेरी
चूड़ी की जंजीर, उलझने वाली लट सुलझा न सके तुम!
किए प्रतीक्षा तेरी दुलहिन
बैठ गई है बनकर विरहिन
लम्बी रातें, लम्बें हैं दिन
कभी आरती की वेला में ओ प्रियतम मुसका न सके तुम!