परस्परता / दिनेश कुमार शुक्ल
सच्चाइयाँ जब हमारे सबसे क़रीब होती हैं
हम उनसे लाखों वर्ष दूर होते हैं,
देखो न
जब हम आये क़रीब
तो किस क़दर बढ़ने लगीं दूरियाँ हमारे बीच
यह तो अच्छा हुआ
हम दूर हो गये
जितना बड़ा है सत्य
असत्य कभी-कभी उससे भी बड़ा दिखता है,
कभी जीवन पर मृत्यु
कभी मृत्यु पर भारी पड़ता है जीवन
पर पासंग बना ही रहता है
इतनी परस्पर नहीं होती परस्परता
और सच पूछो तो
कौन बन सकता है अपनी मॉं की मॉं
कौन बन सकता है सुन्दर अपने प्रतिबिम्ब-सा
गणित में भी
कहाँ सध पाते हैं समीकरण !
सब खड़े हैं अलग-अलग धरातल पर,
जब-तब दो धरातल आमने-सामने आ जाते हैं
लेकिन ज़रा देर में ही कोई ऊपर कोई नीचे चल देता है
ऊँचा-नीच लगा ही रहता है संसार में
लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि
आप
ले उड़ें मरी हुई सभ्यता की आँत
और कहें
कि समानता के स्वप्नों पर भी पाबन्दी है