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पराए हो गए / देवेंद्रकुमार
Kavita Kosh से
परदेस गए
पराए हो गए
यों सहमे खड़े हो
आओ, चले आओ!
देखो कुछ नहीं बदला
यह घर, ये दीवारें
तुलसी का चौरा
कोने में लटका घोंसले का खंडहर,
अंदर अम्मां
सुमरिनी, खड़ाऊं फूल चढ़ी
वह कोना तुम्हारा
उसी तरह।
बाहर नीम तले भोलू चा वाला
रिक्शा स्टैंड वही टुटहा
मक्खियां बेख़ौफ पुरानेपन से।
हां, उस कोठरी में
खेलते थे लुकाछिपी
पिटे और लड़े
अब बंद है बचपन-
आओ खोलें!
अब छोड़ो भी
तुम्हीं कौन वही रह गए हो
चले ही आओ
मिलकर फाड़ते रहें
पुरानी चिट्ठियां
गीलापन बिना पोंछे हुए