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परास्त बुद्धिजीवी का वक्तव्य / कैलाश वाजपेयी

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न हमारी आँखें हैं आत्मरत
न हमारे होंठों पर शोक गीत
जितना कुछ ऊब सके ऊब लिये
हमें अब किसी भी व्यवस्था में डाल दो
(जी जाएँगे)

ऊर्ध्व संगमरमर पर लगे हुए छत्ते-सी
यह सारी दुनिया :
जिसे हम न पा सके
हमारी डंक-छिदी देह को नहीं पता
वहाँ कहीं शहद भी होता है

कटे हुए पैरों में

अपनी हर यात्रा लपेटकर
हम रेगिस्तानों-से फैले पड़े हैं
वर्जित हो यों तो अपनी
सुविधा के लिए
रेतीली छाती से पहिये निकाल दो
(जी जाएँगे)
पानी मटमैला है
या
ख़ाली चेहरा
नहीं पता
बाहर दरारें हैं
या
फटी आँखों में
नहीं पता
बस इतना याद है बर्फ के चाकू की तरह प्यार
एक बहुत भद्दा मजाक़ था
जो भीतर भाव कर
भीतर पिघल गया
हमें अब न जीवन रविवार है
न बूढ़ी माँ की मृत्यु का समाचार,
डोरी से खींचकर लटका दो बाँस पर
(यदि हमें चाहो तो)
गौरवान्वित नहीं होंगे
पढ़े गए रद्दी अख़बार - सा
छितरा दो नंगे फुटपाथ पर
अपमानित न होंगे

चिल्लाती धूप में
बदहवास रात में
कहीं किसी गटर पर
हम खुली पलकों सो जाएँगे
हमें अब किसी भी व्यवस्था में डाल दो
(जी जाएँगे)

क्योंकि निराध्यात्म की
सब जगह सड़ाँध है
हर नगर अच्छा है
क्योंकि हर चेहरे पर
बैठा है 'हायना'
हर मनुष्य सच्चा है।
(हमको अब सब कुछ स्वीकार है)
हमारी परिणति न आत्महत्या है।
न जंग लगी हुई आरती
मुरदा इतिहास की पीली मीनार में
हम दो चुम्बकों के बीच
स्थिर हैं
बुरा लगे यों भी तो
बाहर घसीटकर
हमको निर्वात में
उछाल दो
जितना कुछ ऊब सके ऊब लिये
हमें अब किसी भी
व्यवस्था में डाल दो
(जी जाएँगे)