परिन्दे की परवाज़ / प्रदीप शर्मा
कैसी यह परिंदे की परवाज़ हो गई
कैसी यह परिंदे की परवाज़ हो गई
एक दिन मुझसे अंजाने हमराज़ हो गई।
कैसी यह परिंदे की परवाज़ हो गई
आत्मा परमात्मा की, सोन चिरैया प्यारी
पाल पोस कर उसने कराई, उड़ने की तैयारी
उड़ी ज़रा तो समझी वह तो बाज़ हो गई।
कैसी यह परिंदे की परवाज़ हो गई
पहले मस्ती में झूमी, फिर सारी दुनिया घूमी
इस दुनिया की बगिया की, कली कली भी चूमी
भूल गई किस ताकत से आगाज़ हो गई।
कैसी यह परिंदे की परवाज़ हो गई
भूल गई पिता को अपने, भूल गई सब वादे
नए लोक में बसने के, जब कर लिए नए इरादे
किस बात से वह बाप से नाराज़ हो गई।
कैसी यह परिंदे की परवाज़ हो गई
माया की चीलों ने उस पर बुरी नज़र जब दागी
वह रोई, घबराई , अपनी जान बचाने भागी
भूल के सारी ख़ुशियाँ , वह नासाज़ हो गई।
कैसी यह परिंदे की परवाज़ हो गई
वह भूली थी पिता को अपने, पिता नहीं थे भूले
वह तो हरदम साथ ही थे, वह उड़ी या झूली झूले
पाकर गोद पिता की फिर सरताज हो गई।
ऐसी यह परिंदे की परवाज़ हो गई.
एक दिन मुझसे अंजाने हमराज़ हो गई।
ऐसी यह परिंदे की परवाज़ हो गई.