परिवर्तन / अंतराल / महेन्द्र भटनागर
जग के उर में किसने डाली आज नये फूलों की माला,
खाली प्याली में किसने रे भर-भर कर छलका दी हाला!
सूखे तरु-तरु, पल्लव-पल्लव में फिर से आयी अरुणाई,
कण-कण झूम उठा चंचल हो, चमक दिशाएँ भी मुसकाईं!
है बनी सुहागिन धरा-वधू जिसके अंग-अंग में शुचिता,
कोमल नव-पंखुरि-सी सुन्दर मनहर शीतल जिसकी मृदुता!
झूम रही है जगती सारी उमड़ी सरिता-सी दीवानी,
खेल रहा है मानों टकरा पथ के पाषाणों से पानी!
जग का उपवन स्वर्ण अलंकृत, बीती बोझिल युग-रात घनी,
नभ के परदे पर यौवन की नव लाली उतरी स्नेह-सनी!
नव-संसृति में आया जीवन, अणु-अणु में है कंपन सिहरन,
चंचल लहरों से डोल उठा जगती-सरि का सोया तन-मन!
गुंजित नभ-भू आँगन, होता चिड़ियों का मीठा कलरव,
परिवर्तन की मधु बेला में सबने रूप धरा है नव-नव !
रचनाकाल: 1947