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परिशिष्ट-17 / कबीर

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नगन फिरत जो पाइये जोग। बनका मिरग मुकति सब होग॥
क्या नागे क्या बांधे चाम। जब नहिं चीन्हसि आतम राम॥
मूँड़ मुडांए जो सि;ि पाई। मुक्ती भेड़ न गय्या काई॥
बिंदु राख जो तरयै भाई। खुसरै क्यों न परम गति पाई॥
कहु कबीर सुनहु नर भाई। राम नाम बिन किन गति पाई॥121॥

नर मरै नर काम न आवै। पशु मरैदस काज संवारे॥
अपने कर्म की गति मैं क्या जानी। मैं क्या जानौ बाबा रे॥
हाड़ जले जैसे लकड़ी का तूला। केस जले जैसे घास का पूला॥
कहत कबीर तबही नर जागै। जम का डंड मुँड़ महि लागै॥122॥

नाँगे आवत नाँगे जाना। कोई न रहिहै राजा राना॥
राम राजा नव निधि मेरे। संपै हेतु कलतु धन तेरै॥
आवत संग न जात संगाती। कहा भयो दर बाँधे हाथी॥
लंका गढ़ सोने का भया। मूरख रावन क्या ले गया॥
कह कबीर कुछ गुन बीचारि। चलै जुआरी दुइ हथ झारि॥123॥

नाइक एक बनजारे पांच। बरध पचीसक संग काच॥
नव बहियाँ दस गोनी आहि। कसन बहत्तरि लागी ताहि॥
मोहि ऐसे बनज स्यो ही काजु। जिह घटै मूल नित बढ़ै ब्याजु॥
सत सूत मिलि बनजु कीन। कर्म भावनी संग लीन॥
तीनि जगाती करत रारि। चलो बनजारा हाथ झारि॥
पूँजी हिरानी बनजु टूटि। दह दिस टाँडो गयो फूटि॥
कहि कबीर मन सरसी काज। सहज समानी त भर्म भाजि॥124॥

ना इहु मानुष ना इहु देव। ना इहु जती कहावै सेव॥
ना इहु जोगी ना अवधूता। ना इसु माइ न काहू पूता॥
या मंदर मह कौन बसाई। ता का अंत न कोऊ पाई॥
ना इहु गिरही ना ओदासी। ना इहु राज न भीख मँगासी॥
ना इहु पिंड न रकतू राती। ना इहु ब्रह्मन ना इहु खाती॥
ना इहु तया कहावै सेख। ना इहु जीवै न मरता देख॥
इसु मरते को जे कोऊ रोवै। जो रोवै सोई पति खोवै॥
गुरु प्रसादि मैं डगरो पाया। जीवन मरन दोऊ मिटवाया॥
कहु कबीर इहु राम की अंसु। उस कागद पर मिटै न मंसु॥125॥

ना मैं जोग ध्यान चित लाया। बिन बैराग न छूटसि माया॥
कैसे जीवन होइ हमारा। जब न होइ राम नाम अधारा॥
कहु कबीर खोजौं असमान। राम समान न देखौ आन॥126॥

निंदौ निंदौ मोकौ लोग निंदौ। निंदौ निंदौ मोकौ लोग निंदौ॥
निंदा जन को खरी पियारी। निंदा बाप निंदा महतारी॥
निंदा होय त बैकुंठ जाइयै। नाम पदारथ मनहि बसाइयै॥
रिदै सुद्ध जौ निंदा होइ। हमरे कमरे निंदक धोइ॥
निंदा करै सु हमरा मीत। निंदक माहिं हमारा चीत॥
निंदक सो जो निंदा होरै। हमरा जीवन निंदक लोरै॥
निंदा हमरी प्रेम प्रियार। निंदा हमरा करै उधार॥
जन कबीर कौ निंदा सार। निंदक डूबा हम उतरे पार॥127॥

नित उठि कारि गागरिया लै लीपत जनम गयो॥
ताना बाना कछू न सूझै हरि हरि रस लपट्यो॥
हमरे कुल कौने राम कह्यो॥
जब की माला लई निपूते तब ते सुख न भयो॥
सुनहु जिठानी सुनहु दिरानी अचरज एक भयो॥
सात सूत इन मुडिये खोये इहु मुडिया क्यों न भयो॥
सर्व सखा का एक हरि स्वामी सो गुरु नाम दयो॥
संत प्रह्लाद की पैज निज राखी हरनाखसु नख बिदरो॥
घर के देव पितर की छोड़ो गुरु को सबद लयो॥
कहत कबीर सकल पाप खंडन संतह ले उधरो॥128॥

निर्धन आदर कोई न देई। लाख जतन करै ओहु चित न धरेई॥
जौ निर्धन सरधन कै जाई। आगै बैठा पीठ फिराई॥
जौ सरधन निर्धन कै जाई। दीया आदर लिया बुलाई॥
निर्धन सरधन दोनों भाई। प्रभु की कला न मेटी जाई।
कहि कबीर निर्धन है सोई। जाकै हिरदै नाम न होई॥129॥

पंडित जन माते पढ़ि पुरान। जोगि माते जोग ध्यान॥
संन्यासी माते अहमेव। तपसी माते तप के भेव॥
सब मदमाते कोऊ न जाग। संग ही चोर घर मुसन लाग॥
जागै सुकदेव अरु अक्रूर। हणवंत जाग धरि लंकूर॥
संकर जागे चरन सेव। कलि जागे नामा जैदेव॥
जागत सोवत बहु प्रकार। गुरु मुखि जागे सोई सार॥
इह देही के अधिक काम। कहि कबीर भजि राम नाम॥130॥

पंडिया कौन कुमति तुम लागे।
बूड़हु गे परवार सकल स्यो राम न जपहु अभागे॥
वेद पुरान पढे़ का किया गुन खर चंदन जस भारा॥
राम नाम की गति नहीं जानी कैसे उतरसि पारा॥
जीव बधहु सुधर्म करि थापहु अधर्म कहौ कत भाई॥
आपस को मुनि वर करि थापहु काकहु कहौ कसाई॥
मन के अंधे आपि न बूझहु का कहि बुझावहु भाई।
माया कारन विद्या बेचहु जनम अबिर्था जाई॥
नारद बचन बियास कहत है सुक कौ पूछहु जाई॥
कहि कबीर रामहि रमि छूटहु नाहिं त बूड़े भाई॥131॥

पंथ निहारै कामनी लोचनि भरि लेइ उसासा॥
उर न भीजै पग ना खिसै हरि दर्सन की आसा॥
उड़हु न कागा कारे बेग। मिलीजै अपने राम प्यारे॥
कहि कबीर जीवन पद कारन हरि की भक्ति करीजै॥
एक अधार नाम नारायण रसना राम रबीजै॥132॥

पंद्रह तिथि सात बार। कहि कबीर उर वार न पार॥
साधक सिद्ध लखै जौ भेउ। आपे करता आपे देउ॥
अम्मावस महि आय निवारौ। अंतर्यामी राम समारहु॥
जीवत पावहु मोख दुबारा। अनभौ सबद तत्व निज सारा॥

चरन कमल गोविंद रंग लागा।
संत प्रसाद भये मन निर्मल। हरि कीर्तन महिं अनदिन जागा॥
परवा प्रीतम करहु बीचार। घट महिं खेलै अघट अपार॥
काल कल्पना कदे न खाइ। आदि पुरुष महि रहै समाइ॥
दुतिया दुइ करि जानै अंग। माया ब्रह्म रमै सब संग॥
ना ओहु बढ़ै न घटता जाइ। अकुल निरंजन एकै भाइ॥
तृतीया तीने सम करि ल्यावै। आनंद मूल परम पद पावै॥
साध संगति उपजै बिस्वास। बाहर भीतर सदा प्रगास॥
चौथहि चंचल मन को गहहु। काम क्रोध संग कबहु न बहहू॥

टिप्पणी : एक दूसरे स्थान पर यह पद इस प्रकार आरंभ होता है, ‘बड़ी आकबत कुमति तुम लोग’ शेष सब ज्यों का त्यों है। मूल प्रति में जो 39 नंबर का पद है वह भी कुछ थोड़े से हेर फेर के साथ ऐसा ही है।

जल थल माहें आपही आप। आपै जपहु अपना जाप॥
पांचे पंच तत्त बिस्तार। कनक कामिनि जुग ब्योहार॥
प्रेम सुधा रस पीवै कोई। जरा मरण दुख फेरि न होई॥
छटि षट चक्र चहूँ दिसि धाइ। बिनु परचै नहीं थिरा रहाइ॥
दुबिधा मेटि खिमा गहि रहहु। कर्म धर्म की सूल न सहहु॥
सातै सति करि बाचा जाणि। आतम राम लेहु परवाणि॥
छूटै संसा मिटि जाहि दुक्ख। सुन्य सरोवरि पावहु सुक्ख॥
अष्टमी अष्ट धातु की काया। तामहिं अकुल महा निधि राया॥
गुरु गम ज्ञान बतावै भेद। उलटा रहै अभंग अछेद॥
नौमी नवै द्वार कौ साधि। बहती मनसा राखहु बाँधि॥
लोभ मोह सब बीसरी जाहु। जुग जुग जीवहु अमर फल खाहु॥
दसमी दस दिसि होइ अनंदा। छूटै भर्म मिलै गोबिंदा॥
ज्योति स्वरूप तत्त अनूप। अमल न मल न छाँह नहिं धूप॥
एकादसी एक दिसि धावै। तौ जोनी संकट बहुरि न आवै॥
सीतल निर्मल भया सरीरा। दूरि बतावत पाया नीरा॥
बारसि बारहौ गवै सूर। अहि निसि बाजै अनहद तूर॥
देख्या तिहूँ लोक का पीउ। अचरज भया जीव ते सीउ॥
तेरसि तेरह अगम बखाणि। अर्द्ध अर्द्ध बिच सम पहिचाणि॥
नीच ऊँच नह मान प्रमान। ब्यापक राम सकल सामान॥
चौदसि चौदह लोक मझारि। रोम रोम महि बसहिं मुरारि॥
सत संतोष का धरहु धियान। कथनी कथियै ब्रह्म गियान॥
पून्यो पूरा चंद्र अकास। पसरहिं कला सहज परगास॥
आदि अंत मध्य होइ रह्या बीर। सुखसागर महि रमहिं कबीर॥133॥

पहिला पूत पिछैरी माई। गुरु लागो चेले की पाई॥
अचंभौ सुनहु तुम भाई। देखत सिंह चरावत गाई॥
जल की मछुली तरवर ब्याई। देखत कुतरा लै गई बिलाई॥
तलेरे वैसा ऊपर सूला। तिसकै पेड़ लगै फल फूला॥
घोरै चरि भैस चरावन जाई। बाहर बैल गोनि घर आई॥
कहत कबीर जो इस पद बूझै। राम रमत तिसु सब किछु सूझै॥134॥

पहिली कुरूप कुजाति कुलक्खनी साहुरै पेइयै बुरी।
अब की सरूप सुजाति सुलक्खनी सहजे उदरधरी॥
भत्ती सरी मुई मेरी पहली बरी।
जुग जुग जीवो मेरी अबकी धरी॥
कहु कबीर जब लहुरी आई बड़ी का सुहाग टरो।
लहुरी संग भई अब मेरे जेठी और धरो॥135॥

पाती तैरे मालिनी पाती पाती जीउ।
जिसु पाहन कौ पाती तोरै सो पाहनु निरजीउ॥
भूली मालिनी है एउ सति गुरु जागता है दोउ।
ब्रह्म पाती बिस्नु डारी फूल संकर देव।
तीन देव प्रतख्य तोरहि करहिं किसकी सेव॥
पाषान गढ़ि के मूरति कीनी देकै छाती पाउ।
जे एइ मूरति साची है तो गड़णहारे खाउ॥
भातु पहिति और लापसी करकरा का सारु॥
भोगनु हारे भोगिया इसु मूरति के मुख छार॥
मालिन भूलि जग भुलाना हम भुलाने नाहि॥
कहु कबीर हम राम राखे कृपा करि हरि राइ॥136॥

पानी मैला माटी गोरी। इस माटी को पुतरी जोरी॥
मैं नाहीं कछु आहि न मोरा। तन धन सब रस गोबिंद तोरा॥
इस माटी महि पवन समाया। झूठा परपंच जोरि चलाया॥
किनहू लाख पाँच की जोरी। अंत की बाट गगरिया फोरी॥
कहि कबीर इक नीवौ सारी। खिन महि बिनसि जाइ अहंकारी॥137॥

पाप पुन्य दोइ बैल बिसाहे पवन पूँजी परगास्यो॥
तृष्णा गूणि भरी घट भीतर इन बिधि टाँड बिसाह्यो॥
ऐसा नायक राम हमारा सकल संसार कियो बंजारा॥
काम क्रोध दुइ भये जगाती मन तरंग बटवारा॥
पंच तत्तु मिलि दान निबेरहिं टाडा उतरो पारा॥
कहत कबीर सुनहु रे संतहु अब ऐसी बनि आई॥
घाटी चढ़त बैल इक थाका चलो गोनि छिटकाई॥138॥

पंड मुए जिउ किहि घर जाता। सबद अतीत अनाहद राता॥
जिन राम जान्या तिन्ही पछान्या। ज्यों गूँगे साकर मन मान्या॥
ऐसा ज्ञान कथै बनवारी। मन रे पवन दृढ़ सुषमन नाड़ी॥
सो गुरु करहु जि बहुरि न करना। सो पद रवहु जि बहुरि न रवना॥
सो ध्याना धरहु जि बहुरि न धरना। ऐसे मरहु जि बहुरि न मरना॥
उलटी गंगा जमुन मिलावौ बिनु जल संगम मन महि नावौ॥
लोचा सम सरिहहु ब्योहारा। तत्तु बिचारि क्या अवर बिचारा॥
अप तेज वायु पृथवी अकासा। ऐसी रहनि रहौ हरि पासा॥
कहै कबीर निरंजन ध्यावौ। तित घर जाहु जि बहुरि न आवौ॥139॥

पेवक दै दिन चारि है साहुरडे जाणा।
अंधा लोक न जाणई मूरखु एयाणा॥
कहु डडिया बाँधे धन खड़ी। याहूँ घर आये मूकलाऊ आये॥
ओह जि दिसै खूहड़र कौ न लाजु बहारी।
लाज घड़ी स्यो टूटि पड़ी उठि चलि पनिहारी॥
साहिब होइ दयाला कृपा करे अपना कारज सवारें
ता सोहागणि जानिए गुरु सबद बिचारै॥
किरत कौ बाँधी सब फिरै देखहु बिचारी।
एसनो क्या आखियै क्या करे बिचारी॥
भई निरासी उठि चली चित बँधी न धीरा।
हरि का चरणी लागि रहु भजु सरण कबीरा॥140॥