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पर्दा उठा के महर को रूख़ की झलक दिखा के यूँ / ग़ुलाम हमदानी 'मुसहफ़ी'
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पर्दा उठा के महर को रूख़ की झलक दिखा के यूँ
बाग़ में जा के सर्व को क़द की लचक दिखा के यूँ
आतिश-ए-गुल चमन के बीच जब हमा सू हो शोला-ज़न
अपने लिबास-ए-सुर्ख़ की उस को भड़क दिखा के यूँ
जो कोई पूछे जान-ए-मन शोख़ी ओ जलवा किस तरह
लमा-ए-बर्क़ की तरह एक झमक दिखा के यूँ
शीशे के बीच दुख़्त-ए-रज़ करती है शोख-चश्मियाँ
तू भी टुक अपनी चश्म की उस को भड़क दिखा कि यूँ
नज़रें मिलावे गर कोई तुझ से कभी तो जान-ए-मन
उस के तईं तू दूर से आँखें तनक दिखा के यूँ
कबक ओ तदरौ गर करें आगे मेरे ख़िराम-ए-नाज़
अपने ख़िराम-ए-नाज़ की उन को लटक दिखा के यूँ
रातों को तुझ से जागना गर कोई पूछे ‘मुसहफ़ी’
चश्म-ए-सितारा बाज़ है उस को फ़लक दिखा के यूँ