भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पर्दा जंगारी / अख्तर पयामी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

देख इन रेशमी पर्दों की हदों से बाहर
देख लोहे की सलाख़ों से परे
देख सकड़ों पे ये आवारा मिज़ाजों का हुजूम
देख तहजीब के मारों का हुजूम
अपनी आँखों में छुपाए हुए अरमाल की लाश
काफ़िले आते चले जाते हैं
ज़िंदगी एक ही महवर का सहारा ले कर
नाचते नाचते थक जाती है
नाचते नाचते थक जाती है
तेरे पुर-नूर-शबिस्ताँ में कोई मस्त शबाब
जिस की पाज़ेब की हर लय में हज़ारों लाशें
चाँदनी-रात में बीते हुए रूमानों की
अपनी हर साँस से बाँधे हुए पैमानों की
चीख़ती चीख़ती सो जाती हैं
ये कशाकश ये तसादुम ये तज़ाद
मान लेता हूँ ये फ़ितरत की फ़ुसूँ-कारी है
इन उसूलों ही पे क़ाएम है तमद्दुन का निज़ाम
तू ये कहता है मैं भी तेरी ख़ातिर ऐ दोस्त
मान लेता हूँ ये इंसान की तख़्लीक़ नहीं
कोई माशुक़ है उस पर्दा ज़ंगारी में
तेरा माशूक़ मेरे अहद का इँसाँ तो नहीं
तेरी तम्हीद मेरी नज़्म का उनवाँ तो नहीं