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पर्यटन प्रेम / कविता वाचक्नवी

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पर्यटन प्रेम

वे आते हैं
हिमलय क्षेत्रों में
घूमने,
पर्यटक हैं वे।
चाहते हैं - मनोरंजन
किंचित परिवर्तन
घर की
रोज़मर्रा की
ज़िन्दगी का
ज़ायका बदलना।

प्रकृति .....
सर्वस्व सौंपती
लुटाती - रूप रंग
पूरती है चौक मानो
फैलाती भुजाएँ स्वागती। वे
पगडंडियों पर
घूमते-घामते
पहूँचते
किसी पर्वत-शिखर,
छोड़ते हैं
कोमलावलियों पर
अपने संस्पर्श
अपना परिचय
अपनी पहचान
निशान.......।

शिखराग्र का स्पर्श करते ही
उत्तुंग - श्रॄंग से
सूर्योदय-दर्शन के अभिलाषी
पर्यटक हैं वे!

हिमशायिनी भूमि पर
ऊष्मा खोजते
पहाड़ों पर
बिन अरुणिमा सूर्योदय भी
चाहते हैं देखना।
कैमरों में कैद कर
संस्मरण
ढोते हैं - कंधों पर,
पर्यटक हैं .... वे!

सूर्य से न वास्ता
नहीं प्रकाश से
न दूधिया किरण से
वे तो
पर्वत-भूमि पर
थोड़ी ऊष्मा
थोडे़ दृश्य
सब बटोरते....
पर्यटक हैं....वे!

शिखर
तलहटी, घूमते
रच-बस जाते
प्रकृति में
बदलते जायका
होते तरोताजा
ऊर्जास्वित
लौटते, लौट जाते
अन्ततः......पर्यटक हैं.......वे!

यावज्जीवन
तुंग-भद्रा पर
आने, ठहरने, लौटने के
अवशेष
जल-धारा में फिसलते
पर रहते हैं - शेष।

फिर शीत आते हैं
घिरते हैं जाडे़
बरसता है - हिम

हिमनद कहाँ पिघलता?
ठिठुरती, काँपती, सहमी, सिकुड़ी
जाती जमती
प्रकृति!

कहीं और - और जाते हैं
घूमने,
अस्थायी वासी ही थे
पर्यटक भर थे वे

केवल---- पर्यटक
मौसमी!!!