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पर्यावरण विकास / हरेराम बाजपेयी 'आश'

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काँप रही धरती और ताप रहा आसमान
धूल-धुआँ शोर का नित नया विकास।

ईश्वर ने दी सबको एक पूज्य धरती
अन्न, जल खनिज सभी देती है धरती
कल-कल करें नदियाँ, ऊँचे-ऊँचे पहाड़
हरे भरे जंगलों में शेर की दहाड़
माँ समान प्यार करे बिना किसी भेद
बदले में मानव उसकी छाती रहे छेद
बेहिसाब उत्खनन कर, कर रहा विनाश।
काँप रही॥1॥

झरने तो झरते नहीं, सुख गई नदियाँ
शुद्ध जल की बूँदों को तरस रही नदियाँ
गन्दगी, सड़ांध और रासायनिक जहर
नदी जीवनदायिनी पर, सह रही कहर
गनगा, यमुना शिप्रा हो या फिर रेवा
सभी मैली हो गई, सुखी और बेवा
बोतलों में समा गया, जल का विकास
काँप रही ...... ॥2॥

जहरीली गैसों पर कोई नहीं रोक
हो जाते भोपाल कांड, माना लेते शोक
ओजोन परतें छेद, पहुँच गए चाँद
राकेटों की होड में, प्रकृति है कुरबान
धूल-धुआँ, भीड़-भाड़, बेलगाम शोर
बढ़ रहे हैं पल-पल रहने को नहीं ठौर
अंधी-सी धरती हुई और बहरा आकाश।
काँप रही॥3॥

दूषण और प्रदूषण से मानव है ग्रस्त।
अपने ही सीने पर चला रहा अस्त्र,
कट-कट पेड़ों को खूब राजमार्ग बने
पक्षियों के घर छीने, मल्टी और महल तने
मिटाओगे हरियाली तो कुछ भी नहीं पाओगे
सोचो बिना हवा पानी, जीवित रह जाओगे?
स्वार्थ और अहम त्याग, करे पर्यावरण विकास
काँप रही॥4॥