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पर कब तक / सुदर्शन रत्नाकर

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युगों युगों से तुम्हारी दी
पीड़ा-प्रताड़ना
तिरस्कार-अवहेलना
प्रसाद की तरह ग्रहण करती आ रही हूँ
आँचल पसारे सम्भाल लेती हूँ
तुम्हारे दिए उपहार सब
तुम्हीं बताओ-पर कब तक!

तुम चाह कर भी बदल नहीं पाते हो
बीज रूप में पनपते रहते हैं
तुम्हारे अहं, भीतर ही भीतर
और मैं धरती बन सहती हूँ सब
तुम्हीं बताओ-पर कब तक!

तुमने जिस साँचे में ढाला
मैं ढलती गई
कठपुतली बन इशारों पर नाचती रही
तुमने जो कुछ कहा-
मैं मानती गई
मिटा कर स्वयं को
तुम्हारे सपने सजाती रही सब
तुम्हीं बताओ-पर कब तक!

मैं माँ हूँ, बहन हूँ, बेटी हूँ
सहचरी हूँ तुम्हारी
सोचो तो मेरे बिना क्या अस्तित्व है तुम्हारा
फिर भी करते हो शोषण
फिर भी करते हो प्रताड़ित मुझे
घुट घुट कर जीती हूँ
विष के घूँट पीती हूँ
सहती हूँ तुम्हारी दी वेदनाएँ सब
तुम्हीं बताओ-पर कब तक!

मैं औरत थी
औरत ही बनी रही हमेशा
मेरी अन्तर्वेदना को तुम क्या समझोगे
जब मैं अपने ही घर
अपनों के बीच में भी नहीं होती सुरक्षित
तार तार होती मेरी आबरू
जार-जार रोती मैं
किसे दिखाऊँ अपने आँसू
तुम तो देख नहीं पाते हो
और मुझसे आशा करते हो
मैं चुप रहूँ और सहूँ सब
तुम्हीं बताओ-पर कब तक!

चलो समझौता करते हैं एक
तुम पहाड़ की नाई जीते रहो
सिर उठा कर बेशक
पर मुझे बहने दो
नदी की तरह
अपनी बनाई राह पर
मैं पार कर लूँगी बाधायें
कंकड़-पत्थर समेट लूँगी सब
मैं कर सकती हूँ समर्पण भी
पर बना रहेगा, मेरा अस्तित्व,
मेरी अस्मिता
जब तक