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पलकें न झपकनी थी कि गुफ़्तार अजब था / परवीन शाकिर

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पलकें न झपकानी थीं कि गुफ़्तार अजब थी
आँखों के लिए साअत-ए-दीदार अजब थी

ख़ामोश थे लब सूरत-ए-इकरार अजब थी
क्या कहते सफाई में कि सरकार अजब थी

फिर जमने लगे देख मेरे पाँव ज़मीं पर
ग़ुरबत में तिरे शहर की दीवार अजब थी

इम्कान-ए-बहाराँ से भी दिल डरने लगा था
और बर्ग-ए-तमन्ना की भी कुछ धार अजब थी