पलकें न झपकानी थीं कि गुफ़्तार अजब थी
आँखों के लिए साअत-ए-दीदार अजब थी
ख़ामोश थे लब सूरत-ए-इकरार अजब थी
क्या कहते सफाई में कि सरकार अजब थी
फिर जमने लगे देख मेरे पाँव ज़मीं पर
ग़ुरबत में तिरे शहर की दीवार अजब थी
इम्कान-ए-बहाराँ से भी दिल डरने लगा था
और बर्ग-ए-तमन्ना की भी कुछ धार अजब थी