Last modified on 10 नवम्बर 2009, at 00:22

पलक झपकी कि मंज़र ख़त्म था बर्के-तजल्ली का / आरज़ू लखनवी

पलक झपकी कि मंज़र खत्म था बर्क़े-तजल्ली का।
ज़ता सी न्यामतेदीद, उसका भी यूँ रायगाँ जाना॥

समझ ले शमा से ऐ हमनशीं! आदाबे-ग़मख्वारी।
ज़बाँ कटवानेवाले का है, मन्सब राज़दाँ होना॥