पलायन / सपना भट्ट
बाहर देह की मिट्टी भीजती रहती है
भीतर मन को शोक गलाता रहता है
पीड़ा के अक्षुण्ण धूसर दाग़ों से
आत्मा बदरंग होती जाती है।
यह कैसा असंभव आकर्षण है
तुम्हारे अभाव का कि
सारी वांछाएँ तुम पर आकर खत्म हो जाती हैं
मैं रूप, माधुर्य और लावण्य से भरी हुई होकर भी
प्रार्थनाओ में तुम्हे माँगती हुई
कितनी असहाय और दरिद्र दिखाई देती हूँ।
निमिष भर को सूझता नहीं
कि प्रेम करती हूँ या याचना!
या याचनाओं में ही स्वयं के स्मृतिलोप की कामना।
जीवन कठिन परीक्षाओं का सतत क्रम है
देह को देह ही त्यागती है
प्रेम को प्रेम ही मुक्त करता है।
तुम पुरुष हो सो ब्रह्म हो।
मैं स्त्री हूँ सो भी वर्जनाओं में।
कहीं भाग जाना चाहती हूँ
लेकिन कहाँ?
स्त्री की सहचरी तो उसकी छाया भी नहीं
मृत्यु भी प्रेम के मारे की बांह नहीं धरती।
तिस पर स्त्री देह लेकर पलायन की इच्छा रखना
उतना ही दुष्कर है,
जितना चोरी के बाद
घुंघरू पहन कर चलने पर
पकड़े न जाने की इच्छा करना।