भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पल भर ही दुलराया होता / सुमित्रा कुमारी सिन्हा
Kavita Kosh से
पल भर ही दुलराया होता ।
आज न मेरे गीतों का जी दुख से यों भर आया होता ।
रुक जाती ये आँसू-धारें,
चुप होती ये विकल पुकारें,
सपनों की तृष्णा को तुमने क्षण भर ही बहलाया होता ।
मन-पंछी उड़ जाता नभ पर,
करता पार सरित,गिरि,सागर,
चंचु मिला टूटी शाखा पर थकित पंख सहलाया होता ।
शून्य डगर की पथिक न होती,
दु:ख-गेह की अतिथि न होती,
मेरा प्रतिपल धधकी ज्वाला से फिर यों न नहाया होता ।
जीवन की कुछ ममता होती,
सब सहने की क्षमता होती,
मेरी ऊसर-चाहों में मधुमास उतर हँस आया होता ।
द्वार-द्वार की करुण याचना,
आज न होती छल-प्रवंचना,
बेबस होकर मरु में अपना खंडहर यों न बसाया होता ।
पल भर यदि दुलराया होता ।