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पशु पशुपति / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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उत्तर हिम-अंचल दिस चंचल कल-कल गंगा धार
सेतुबध रामेश्वर दक्षिण सागर कूल किनार
योजन सहस दूर अन्तर प्रांतर वन-कांतार
कोना चढ़ायब गंगाधरकेँ गंगा-जल शुचि सार
हमर जन्म हित कयलनि कबुला-पाती बाबू-माय
गंगाजली कान्ह लय बौआ स्वयं चढ़ाओत जाय
यदपि दिवंगत तात-मात, बिसरल नहि कथा तथापि
किन्तु आइ धरि हंत! चढ़ौलहुँ नहि जल शिव शिर थापि
उचटल चित्त ‘एकनाथ’क अछि दु्रत-पद चलल तरंत
अटकल नहि बाटहु घाटहु नहि बिरमल, दूर-दुरंत
अति दुर्गम हिमाद्रि हिम-दुर्वह गंगोत्री गिरि-खंड
भरि शुचि कलश सलिल निर्मल, जनु द्रवित धर्महिक पिंड
सत् संकल्प, विकल्प न अल्पहु, अह निश गति अविराम
शिव-लिंगक हित गंगोदक लय चलला दक्षिण धाम
हिम-उपत्यका टपइत, कत जनपद पुर मरु पथ भीम
गिरि गह्नर वन सघन बिजन पाँतर कत अकथ असीम
दिन सप्ताह मास पुनि ऋतु कत वर्षा - अंधड़ झेलि
जाड़ - ठाढ़ हिम - गाढ़ गमाओल पुनि गर्मीक झमेल
आपत-तापित मरुथल शापित कंठ पिपासित घोर
नीर बिन्दु बिनु पथिकक जीवन संकट पड़ल अथोर
किन्तु कलश गत हिमजल कनहु न पिबय-चाह’ मति-धीर
वती एकनाथ क मन कखनहु छनहु न श्रान्त अधीर
तंद्रो-नहि, निद्राक कथा की! भूख-प्यास नहि लेश
मनमे ध्यान, नाम मुखमे पदमे गति तीर्थ उदेश
कत ऋतु बिता, ग्राम पुर वन पर्वत पथ दुर्गम दूर
कत शत योजन चलि पैदल जल कलश कान्ह श्रम झूर
पहुँचल निकट सेतुबंधक सिन्धुक ध्वनि सुनि गंभीर
बुझल सफल श्रम एकनाथ मन उछलल दरस अधीर
जय कन्या कुमारि दाक्षायणि तपी सेतु वृष-केतु
दक्षिण उत्तर तीर्थ भारती आ - हिमगिरि आ-सेतु
दूर दूर मन्दिरक शिखर, दूरागत सिन्धु तरंग
भक्तक उर आंदोलित, तावत घटित विचित्र प्रसंग
निकटहि एक विकल गदहा छल हँफइत चटइत भूमि
प्रान पानि बिनु ततछन तजइत नहि जल कन सक जूमि
निरखि निरीह पशुक दुर्गति उर द्रवित पथिक रुकि गेल
सहसा गंगाजली उझकि, किछु खसा बिन्दु शुचि देल
जनु फिरि आयल प्राण पशुक करुणासँ छलछल आँखि
मुह बबइत चातक घन याचक पिबय पसारल पाँखि
क्रमहि कलशसँ बिन्दु-बिन्दु जल सदय पिऔलनि हंत
भाव-विभोर पशुपतिक पूजक पशुकेँ पूजल अन्त!
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सहसा मन्दिर घण्टा बाजल जय धुनि जलधि गँभीर
पशु बनि पशुपति स्वयं ग्रहण कयलनि जेँ गंगा-नीर