पहचान कौन / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल
अनाम, अवांछित नागरिक
दिखाओ अपना पहचानपत्र
नहीं तो वोटर-आईकार्ड
अरे भाई! कुछ तो होगा
राशन-कार्ड ही सही
चाहे राशन नहीं
नहीं तो पैन-कार्ड
या ड्राइविंग-लाइसेंस
कुछ तो होगा
कहीं तो तुमने जन्म लिया होगा
कोई जन्मपत्री
अब ये मत कहना
उस दिन बड़े जोर की बारिश पड़ी थी
दाई बड़ी मुश्किल से
तुम्हारे घर पहुँची थी
ऐसे ही आँधी-पानी में
तुम भी धरा पर टपक पड़े
अफसोस
कुछ भी नहीं है तुम्हारे पास
तुम्हारी पहचान के लिए
कैसे मानें
तुम इस देश के नागरिक हो
चाहे तुम अपना गाँव छोड़कर
चाँद को ढूँढ़ते-ढँूढ़ते
शहर आ पहुँचे हो
सब ऐसे ही मुँ उठाए चले आते हैं
किस-किसको सँभालें
किस-किसका दाना-पानी देखें
मेरे प्यारे नागरिक!
पहले अपनी पहचान बताओ
तभी तो तुम्हारे लिए
कुछ कर पाऊँगा
तुम्हारे अधिकारों के लिए
लड़ पाऊँगा
कम-से-कम अँगूठा ही होता
पर तुमने तो वो भी कटवा रखा है
हिम्मत नहीं अँगूठा छुड़ावाने की
चाहत नहीं खेतों में लौट जाने की
यहाँ पर तो रिक्शा भी चला लोगे
जैसे भी जहाँ रह लोगे, खा लोगे
कब होगा अंत
कि तुम एक कागज के टुकड़े से
पहचाने जाओगे
कब होगा अंत
कि तुम एक नंबर से जाने जाओगे
क्या तुम्हारा नाम ही काफी नहीं
क्या तुम्हारा देश ही काफी नहीं
तुम्हारे वजूद का सबूत
क्या ये पहाड़ ही काफी नहीं
जिन्हें पार कर आए हो
क्या ये कँटीली राहें ही काफी नहीं
जिन पर तुम खून भरे पदचिह्न छोड़ आए हो
लहू पुकारता है बार-बार
ओ धरती के लाल!
लौट जा वहाँ!
जहाँ कोई तुमसे
तुम्हारी पहचान न पूछे
जहाँ कोई
तुम्हारी शान पर ना थूके
लौट जा
ओ धरती के लाल!
खेतों में लौट जा
हल उठाओगे
तो फल भी आएगा
लौटेगा एक-एक पौधा
जीवन का गीत गाएगा।