भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पहरेदार के नाम / मदन कश्यप

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह खिड़की किस दिशा में है, पहरेदार !
महीनों लगातार नाख़ून से खरोंचने के बाद
मैंने इसमें एक सुराख़ बनाया है
इससे होकर सुबह की एक किरण आएगी न, पहरेदार ?

रात-दिन अन्धेरे में रहते-रहते
मेरा मस्तिष्क कालिख से भर गया है
मैं रोशनी को देखने के लिए तरस गया हूँ, पहरेदार !
बोलो तो सही इससे होकर एक किरण आएगी न !
यह खिड़की किस दिशा में है ?

बड़ी घुटन है इस कमरे में
यहाँ की हवा तक पुरानी हो गई है
अपने ही आक्रोश से आहत और लहू-लुहान मैं
अब अपने होने से भी डरने लगा हूँ
अन्धेरे में अपना चेहरा भी भयानक लगता है
मैं तो कब का पागल हो गया होता
अगर दरवाज़े के बाहर रात-दिन
तुम्हारे बैठे रहने का एहसास नहीं होता

मानता हूँ, पहरेदार ! तुम बाहर हो
धूप को छू सकते हो चान्दनी को सहला सकते हो
लेकिन सीने पर बर्फ की काली चट्टान-सी
पिघलती हुई रातें
और पीठ पर ज्वालामुखी से धधकते हुए दिन
ढोते हुए तुम
मुझसे भी अधिक मजबूर हो
मुझे तरस आता है, पहरेदार !
तुम्हारी एहसासहीन छटपटाहट पर
बेजान बन्दूक से निकलने वाली आवाज़ की तरह
मुझे सावधान करने के लिए लगाई गई गूँगी हाँक पर

मेरी भाषा अभी चीख़ के रूप में बची है पहरेदार
पर तुम तो बिलकुल गूँगे बना दिए गए हो !

(1975)