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पहली किरण / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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जगमग जगमग ज्योति करो हे!
मेरे तममय अन्तरतम में दीप-शिखा का स्वर्ण भरो हे!!
कलुष-कालिमा के अनन्त नभ
से भर छलक रहा जीवन-घट;
चंचल-कुटिल-विषाक्त वासना
की लहरों से छिन्न सरित्-तट।
फेनोज्ज्वल जल के कल-कल से जीवन-मरुथल मुखर करो हे!!

इन्द्रधनुष के रंग भरो हे
धूमिल उर के शून्य पटल पर;
कलित कल्पना को पर दो
जागृत कर दो हे सुप्त सप्त स्वर।
जीवन की नीरस वीणा में एक सरस झंकार भरो हे!!

मैं प्यासा हूँ अमृत-बिन्दु का
यद्यपि मृत्यु-लोक का वासी;
दूर असत् से सत् की ओर
मुझे ले जाओ हे अविनाशी!
स्वर्ण-शृंग से बन ज्योतिर्मय निर्झर झर्-झर् सतत् झरो हे!!