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पहले ज़मीन बाँटी थी फिर घर भी बँट गया / शीन काफ़ निज़ाम

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पहले ज़मीन बांटी थी फिर घर भी बँट गया
इंसान अपने आप में कितना सिमट गया

अब क्या हुआ कि ख़ुद को मैं पहचानता नहीं
मुद्दत हुई कि रिश्ते का कुहरा भी छट गया

हम मुन्तज़िर थे शाम से सूरज के दोस्तों
लेकिन वो आया सर पे तो क़द अपना घट गया

गाँवों को छोड़ कर तो चले आये शहर में
जाएँ किधर कि शहर से भी जी उचट गया

किससे पनाह मांगे कहाँ जाए क्या करें
फिर आफ़ताब रात का घूँघट उलट गया

सैलाब-ए-नूर में जो रहा मुझ से दूर-दूर
वो शख्स फिर अँधेरे में मुझसे लिपट गया