पहाड़ी पर घर / मनोज चौहान
{{KKRachna | रचनाकार=
अपने कवार्टर की,
बालकनी से ,
निहारता हूँ जब,
पहाड़ी पर बने,
उन घरों को ,
तो एकाएक ही ,
कौंध पड़ते हैं ,
कई सवाल,
जहन में l
कैसे जुटाते हैं वह,
रोजमर्रा की ,
जरुरत का सामान,
मीलों की पैदल,
थका देने वाले,
रास्ते की चढाई,
और उतराई,
बाधा बन खड़ी है,
हमेशा से ही,
उनके और,
शहर के बीच l
सर्दी के मौसम में,
हालात हो जाते हैं ,
और भी भयावह,
पहाड़ी पर गिरा बर्फ,
और उसकी ठिठुरन,
कंपा देती है ,
उन्हें अन्दर तक l
पहाड़ मोह लेते है,
मन सैलानियों का,
चांदी की परत,
सी दिखती है,
बर्फ की चादर,
मगर नहीं दिखता,
कोई भी आतुर,
जान लेने को,
वेदना,
उनके भीतर की l
दूर पहाड़ी के ,
उस घर की खिड़की से,
निहारता है बूढा सुखिया,
और खांसता है,
चिलम गुडगुडाते हुए l
चिंता की लकीरें,
उभर आई हैं ,
उसके माथे पर,
वह करता है हिसाब,
ठण्ड से मर चुकी,
बकरियों का,
बर्फ पर फिसलने से,
मुन्नी के पावं पर,
चढ़े प्लास्टर का,
और दूर शहर में ,
पढ़ रहे बेटे की,
फीस का l
दरवाजे पर हुई,
आहट,
रोक देती है ,
विचारों का ,
प्रबल वेग ,
क्षण भर के लिए l
चाय और सत्तू देने आई ,
पत्नी के लौटते ही,
पुनः खो जाता है वह,
पहाड़ी जीवन के ,
गणित को,
सुलझाने में |