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पहाड़ की चोटी से / गुल मकई / हेमन्त देवलेकर

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मैं पहाड़ की चोटी पर बैठा हूँ
सारा शहर
नक्शे की तरह मेरे सामने फैला है
ऊँचाई
चीज़ों के दरम्याने फ़ासले मिटा देती है
सब कुछ एक-दूसरे से उपजता
एक-दूसरे में होता विलीन
दूर-दूर तक फैले सारे ओर-छोर
एक दृष्टि में सिमटे हुए
लघुता में तब्दील शहर
जैसे आपका हुक्म सुनने को तत्पर अवाम
और आप कोई सम्राट –
ऊँचाई उपदेशक होने का भ्रम है
चोटी पर बैठ सुलझाता हूँ शहर
किसी पहेली की तरह
और लगता हूँ ढूँढने अपना ही घर,
घर के आसपास का कोई निशान
मिलता नहीं मगर कुछ
पर वो जो नहीं ढूँढता
दीख जाता –
ऊँचाई स्वार्थी होने से बचा लेती है
पहाड़ सिखाते हैं
चढ़ाई और ढलान एक होती है –
अंतर सिर्फ़ दिशा का
संसार की कितनी ख़ुशनुमा छत है
पहाड़ की चोटी
-क्या पहाड़ों के भीतर रहा नहीं जा सकता?