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पहाड़ की नारी / सुन्दर नौटियाल

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सिर पर डिमळा बंटा हाथ में
उठ गयी है तू झुम-झुमी रात में ।
पहाड़ की नारी, तू कहाँ को जा री ?

सुबेर कु यु टेम है भुला
घर में देणा चैका-चुल्ला ।
मुख धोण जा री मैं पाणी ल्यौण जा री ।।

दाथुड़ी-पगुड़ी लेके हाथ में
मगन हो के दगड्यों की बात में ।
पहाड़ की नारी, तू कहाँ को जा री ?

घर में भैंसी-गौड़ी है बांधीं
खाली ह्वैगे मेरी लखड़ू की सांदी ।
लखड़ू कु जा री मैं, घासा कु जारी ।।

घास का बोझा तो ले आई तू
पसीने से लथपथ है न्याही तू ।
पहाड़ की नारी, तू अब कहाँ को जा री ?

खेत मा जा रखी है बल्दु की जोड़ी
ब्याखुनी को सकूंगी मैं ढिंका फोड़ी ।
ग्यों बोण जा री मैं कोणा खैण जा री ।।

दिन भर की तो थकी हुई तू
धूप में भी खूब पकी हुइ तू
सांस ले दो घड़ी, अब कहाँ को जारी ?

अभी चुला आग जगाण है मैने
रोटी-भुजी, दाल-चैंळ पकाण है मैंने ।
मैं तो चैंळ पंवाँ री, मैं तो रोड़दा भड्या री ।

छिलका जला के हाथ घास पुळा लेके
सब घरवालों को खाणा पिणा दे के ।
पहाड़ की नारी, अब कहाँ को जा री ?

खिला दिया अब पिला दिया अब
नौन्याळौं तैं सुला दिया अब ।
ओबरे में भुला मेरी भैंसी डड्या री,
मैं न्यार देण जा री, मैं न्यार देण जा री ।।

सुबह से शाम, बस काम ही काम
बरखा हो या हो रूड़-घाम ।
दिनभर थक कर, घाम में पककर
तू हंस री हैं, तू मुस्का री ।
धन हे मेरी पहाड़ की नारी
धन-धन हे मेरी पहाड़ की नारी ।।