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पहाड़ की नीलिमा और दिगन्त की नीलिमा / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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पहाड़ की नीलिमा और दिगन्त की नीलिमा
शून्य और धरातल मिलकर ये सब के सब
मन्त्र बाँधते हैं अनुप्रास और छन्द सें
वन को कराती स्नान शरत की सुनहली धाम।
पीले फूलों में मधु ढूढ़ती हैं बैंगनी मधुमक्खियाँ;
बीच में हूं, मैं,
चारों ओर आकाश बजाता है निःशब्द तालियाँ।
मेरे आनन्द में आज हो रहे एकाकार
समस्त रंग और ध्वनियाँ,
जानता है क्या इस बात को यहाँ का यह कालिगपंग ?
भण्डार करता हे संचित यह पर्वत शिखर
अन्तहीन युग-युगान्तर।
मेरे एक दिन में उसे वरमाला पहना दी,
यह शुभ संवाद पाने को
अन्तरीक्ष दूर से भी और दूर
अनाहत के स्वर में
सोने का घण्टा बजता है प्रभात ढन्न ढन
सुनता है क्या कलिंगपग?


कलिंगपंग
25 सितम्बर, 1940