पहाड़ की परतें चटकने लगी हैं / स्वाति मेलकानी
उसके भीतर कई पहाड़ उगते हैं
और
पहाड़ की चोटी में बैठकर
वह देखती है गहरी खाइयों को...
आसमान बरसता है
और वह लौट आती है
ढलान पर बनी
अपनीझोपड़ी में।
पहाड़ पर परतें चढ़ती हैं...
वह रोज चूल्हा जलाती है
धुँए मे खुली आँखों से
टपकते हैं गर्म आँसू
और
भाप बनकर
उड़ जाते हैं
पहाड़ की चोटी पर
पहाड़ पर परतें चढ़ती हैं...
इस बार की आग में
जंगल वीरान हो गया।
जल चुकी लकड़ियों को समेटती,
वह पुकारती है खोई बकरियों को
ज्वालामुखी के लावे से
भर आता है गला
पहाड़ पर परतें चढ़ती हैं...
इस बार के जाड़ों में
बर्फ नहीं गिरी
शायद, समय से पहले पक जाएँगें काफल
और खिल उठेंगे बुरांश
गर्मी ज्यादा है इस बार
और पहाड़ की परतें चटकने लगी हैं