पहाड़ के बाशिन्दे / काएसिन कुलिएव / सुधीर सक्सेना
बोली पहाड़ के बाशिन्दों की लच्छेदार नहीं, अक्खड़ है
बोलचाल इतनी बेढब और इतनी गँवारू
कि मैं डरता हूँ, एक भी शब्द इधर से उधर करने में
ठीक उस घोड़े-सा, जो डरता है सँकरी पुलिया पर पाँव धरने में
उनकी बातचीत है शहरी लालित्य से दूर
एक साधारण किसान बतियाता है मद्धिम आवाज़ में
पर उसका एक-एक शब्द होता है सम्पूर्ण,
मक्के की बाली-सा
मज़बूत और ठोस पत्थर की दीवार जैसा
अपनी शान्त चर्चा के बीच वे नहीं रुकते विचारने को —
घिसे-पिटे प्रश्न, कि सत्य क्या है और पाखण्ड क्या ?
’इनसानियत’ शब्द का इस्तेमाल नहीं करते वे
पर उनकी हर बात से टपकती है इनसानियत
सिर्फ़ ये बातें डाल सकती हैं उनकी बातचीत में व्यवधान —
ख़बर कि गत रात दम तोड़ दिया फलाँ के मवेशी ने,
आशंका कि जल्द ख़त्म होने को हैचारा,
आभास कि एक माह या और अधिक है वसन्त के आने में
पहाड़ के बड़े-बूढ़ों की बातचीत सदा की तरह
घूमती है दिन भर की परेशानियों के चहुँओर
उनकी भाषा जो नहीं बदली युगों से
महकती है मेहनत की रोटी और ताज़ा पुआल की तरह
मेरे तईं ठीक नहीं है उनकी बहस में पड़ना,
लेना-देना नहीं मुझे उनकी दलीलों, निष्कर्षों से
मेरे लिए मीठी है, बस, उनकी वाणी, जिसमें
छलकता है जड़ी-बूटियों का हुनर
और ज़माने की नेकनीयती ।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुधीर सक्सेना