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पहाड़ पर धूप / अनूप सेठी
Kavita Kosh से
सीढ़ियाँ चढ़ के आती हुई सी धूप
दोपहर शायद इन दिनों भी अच्छी होगी वहाँ
शाम तक बैठी रहे साथ साथ
रूह का गुनगुना स्पर्श।
तमस को हवा उलीच के ले जाए
पहाड़िन चांदी के बर्क बांटे सुबह सुबह।
बाबू! जब भीड़ में चुंधिया जाओ
तो देखना अक्स
रूह का गुनगुना स्पर्श।
रातरानियों की खुशबू अगले मौसम दूँगी
धौलाधारी चांदनी में लपेट लपेट
निर्गले मोसम देवदार डूबे रोम ले जाना
आज दोपहर भर बैठ के खोलो पोर पोर।
धूप कहे यह मेरी तुम्हारी अपनी झिंझोटी है
शहर में खुले आम हांक लगाओगे डूब जाएगी।
रूह का गुनगुना स्पर्श।
(1984)
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1. अगले से अगले
2. हिमाचली लोकगीत का एक प्रकार