पहाड़ पर रहने वाला कवि / कुमार कृष्ण
पहाड़ पर रहने वाले कवि में
रहते हैं हर वक्त्त सैकड़ों पहाड़
जब-जब लहराते हैं दरख्त हवा में
उसे लगता है आग ने करवट बदली
जब-जब उतरती है बर्फ पहाड़ पर
उसे लगता है-
ज़िन्दा है मौसम की गरमाहट
जब कभी फूटता है कोई लोकगीत किसी कण्ठ से
उसे लगता है-
नहीं गली पूरी तरह रिश्तों की फाँक
जब कभी लगता है कोई मेला किसी घाटी में
पहाड़ पर रहने वाला कवि
सोचता है लगातार-
आखिर क्यों नहीं देखना चाहते लोग
तीरंदाजी और कठपुतलियों का नाच
सबसे अधिक भीड़ क्यों है
उस साबुन बेचने वाले बनिये के पास
पहाड़ पर रहने वाला कवि
मेले में ढूँढ़ता है अपना बचपन
किसी बूढ़े आदमी के खाँसने की आवाज़
औरत की चीख
दोनों एक साथ गूँजती हैं उसके कानों में
पहाड़ पर रहने वाला कवि देखता है-
बच्चे बिना किसी भय के
देख रहे हैं एक डरावनी फिल्म
चुपचाप।