पहिचानो पहले अन्तर को / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
पहिचानो पहले अन्तर को
फिर स्वर को पहिचाना
छान सको तो दृग सागर से
दो कण मोती छानो
सागर के अन्तर की बातें लहरें बोल रही हैं
मेरे हिय सागर को आहें आज टटोल रही हैं
डोल रहा है नभ का चन्दा, दूरी तोल रहा है
मेरा मन-पंछी आकुल हो नव स्वर घोल रहा है
डूब रहे हैं एक-एक कर देखो सभी सितारे
मेरे मन के भाव सिमटते जाते इसी सहारे
मैंने अपनी मानी गलती तुम भी अपनी मानो
जान सको तो पहले मेरे
जीवन को ही जानो
किसकी सुधि मेरे अन्तर में लेती है अँगराई
सकेगा कौन दूसरा उस छवि की गहराई
सुरभित हो न सकेगा
मेरे जीवन-वन का कोना
होकर वही रहेगा आखिर
जो कुछ होगा होना
समय बीतता जाता फिर भी
घोर तिमिर है छाया
मेरा माँझी कूल छोड़ने को
अतिशय अकुलाया
मैंने मन में ठान लिया है
तुम भी मन में ठानो
खुली नाव यह पाल तनी है
तुम भी अपनी तानो