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पहुँचा है आज क़ैस का याँ सिलसिला मुझे / शेर मो. ख़ाँ ईमान
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पहुँचा है आज क़ैस का याँ सिलसिला मुझे
जंगल की रास क्यूँ न हो आब हो हवा मुझे
आना अगर तिरा नहीं होता है मेरे घर
दौलत-सरा में अपने ही इक दिल बुला मुझे
वो होवे और मैं हूँ इक कुंज-ए-आफ़ियत
इस से ज़ियादा चाहिए फिर और क्या मुझे
पैदा किया है जब से कि मैं रब्त-ए-इश्क़ से
बेगाना जानता है हर एक आश्ना मुझे
काफ़िर बुतों की राह न जा आ ख़ुदा को मान
पीर-ए-ख़िरद ने गरचे कहा बारहा मुझे
पर क्या करूँ कि दिल ही नहीं इख़्तिार में
उस ख़ानुमा-ख़राब ने आज़िज किया मुझे
पहले ही अपने दिल को न देना था उस के हाथ
‘ईमान’ अब तो कोई पड़ी है वफ़ा मुझे