पाँचवां अध्याय / रंजना वर्मा
कहा सूत ने आगे सुनिये। यह नृप कथा हृदय में गुनिये।।
एक प्रजा पालक था राजा। नाम तुंगध्वज उस का भ्राजा।।
सत्यदेव प्रसाद था त्यागा। दुख पाया तो फिर से माँगा।।
एक दिवस वह विपिन गया था। पशु वध कर आखेट किया था।।
बरगद के नीचे था देखा। गोप गणों का सुन्दर लेखा।।
सत्यदेव का पूजन करते। बन्धु सहित मन के दुख हरते।।
राजा था लेकिन अभिमानी।नहीं सत्य महिमा पहचानी।।
गया न निकट न नमन ही किया। था प्रसाद उन से नहीं लिया।।
वे प्रसाद रख निकट गये थे। सब खा पी कर सुखी हुए थे।।
राजा ने दुख पाया भारी। गयीं पुत्र सेनाएं मारी।।
नष्ट हो गया अन धन सारा।दुखी नृपति ने हृदय विचारा।।
सत्य देव ने कोप किया है। मुझ को दुस्सह कष्ट दिया है।।
अतः वहीं अब मैं जाऊँगा।पूजन कर प्रसाद पाऊँगा।।
ग्वालों को तब पुनः बुलाया। सत्यदेव पूजन करवाया।।
भक्ति और श्रद्धा थी जागी। भूपति ने निज इच्छा माँगी।।
सत्यदेव ने धन लौटाया। पुत्र राज्य सब उस ने पाया।।
जीवन भर सुख बहुत उठाया। सत्यनगर निवास फिर पाया।।
जो यह दुर्लभ व्रत करता है। श्रद्धा सहित कथा सुनता है।।
वह धन धान्य बहुत है पाता। बंदी बन्धन से छुट जाता।।
भीत छोड़ देता है भय को। पाता सत्य भक्ति अक्षय को।।
इच्छित फल जीवन भर पा कर। सत्यदेवपुर बसता मर कर।।
यह व्रत है अति दुर्लभ भाई। कर जग ने सुख सुविधा पायी।।
कलयुग में है अति फलदायी। सत्यनारायण व्रत सुखदायी।।
कोई सत्य ईश है कहता। सत्यनारायण कहता रहता।।
कोई सत्यदेव है कहता। विविध रूप प्रभु धारे रहता।।
इच्छा पूरी करने वाला। यह व्रत सब दुख हरने वाला।।
जो जन नित्य कथा यह पढ़ते। सत्यदेव दुख उस के हरते।।
व्रत जो जन पहले कर आये। अपर जन्म की कथा बताये।।
शतानन्द था बना सुदामा। मोक्ष मिला भज कर श्री श्यामा।।
लकड़हारा गुह बन कर जन्मा। राम सखा नित भक्ति में रमा।।
सेवा कर थी मुक्ती पायी। गति अंतिम पायी सुखदायी।।
उल्कामुख राजा ने मर कर। जन्म लिया नृप दशरथ बन कर।।
राम चरन रति जिस ने पायी। मरण हुआ उस का फलदायी।।
सत्यसंध था साधु सयाना। मोरध्वज का तन मनमाना।।
जिस ने हरि हित देह चिरायी। मुक्ति चिरन्तन थी फिर पायी।।
स्वायम्भुव मनु हुआ तुंगध्वज। प्रीति रही हरि के पद पंकज।।
मर कर था वैकुण्ठ सिधाया। जीवन और मरण फल पाया।।
।। श्री सत्यनारायण कथा का पाँचवां अध्याय समाप्त।।