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पाँड़े नहिं भोग लगावन पावै / सूरदास

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राग रामकली

पाँड़े नहिं भोग लगावन पावै ।
करि-करि पाक जबै अर्पत है, तबहीं-तब छूवैं आवै ॥
इच्छा करि मैं बाम्हन न्यौत्यौ, ताकौं स्याम खिझावै ।
वह अपने ठाकुरहि जिंवावै, तू ऐसैं उठि धावै ॥
जननी दोष देति कत मोकौं,बहु बिधान करि ध्यावै ।
नैन मूँदि, कर जोरि, नाम लै बारहिं बार बुलावै ॥
कहि अंतर क्यौं होइ भक्त सौं जो मेरैं मन भावै ?
सूरदास बलि-बलि बिलास पर, जन्म-जन्म जस गावै ॥

भावार्थ :-- पाँड़े जी भोग नहीं लगा पाते । जब-जब खीर बनाकर (अपने आराध्य को) अर्पित करते हैं, तभी-तभी मोहन उसे छू आता है । (इससे माता डाँटने लगीं-) `मैंने तो बड़ी उमंग से ब्राह्मण को निमंत्रण दिया और श्याम! तू उन्हें चिढ़ाता है ? वे अपने ठाकुर जी को भोग लगाते हैं, तब तू यों ही उठकर दौड़ पड़ता है ।'( यह सुनकर मोहन बोले-) `मैया ! तू मुझे क्यों दोष दे रही है, वह ब्राह्मण (स्वयं) बड़े-विधान से मेरा ध्यान करता है । नेत्र बंद करके, हाथ जोड़कर बार-बार नाम लेकर मुझे बुलाता है । भला, बता-जो भक्त मेरे मन को भा जाता है, उससे मुझ में अन्तर कैसे रहे ? (मैं उससे दूर कैसे रह सकता हूँ।)' सूरदास तो इस लीलापर बार-बार न्योछावर है (प्रभो! मुझे तो यही वरदान दो कि) जन्म-जन्म में तुम्हारे ही यश का गान करूँ ।