पागल नदी की आँखें नहीं होती / सरोज कुमार
जिसने की हत्या
वहवहशी था, तो
जिनने प्रतिहत्याएँ की वे कौन सभ्य हैं
दोनों ही एक हैं!
दोनों मैं बँट जाता है संसार
अस्भ्यो की जीत असभ्यों की हार!
नदी जब पागल हो जाती है
अपने ही किनारे ढहा देती है
अपने ही खून से
सिंचे खेत, बहा देती है!
पागल नदी की आँखेँ नहीं होतीं!
वहशियों की आँखों में
पागल नदी बहती है!
तुम्हें वह नहीं दिखी
तुम जिसके दीवाने थे!
वह उसी रिक्शे में बैठी थी
तुमने तहस-नहस किया जिसको!
वह उसी ट्रक पर सवार थी
जिसे तुमने जला दिया!
वह उसी पीठे में हाजिर थी
जिसे तुमने लपटों में बदल दिया!
वह उसी मकान में सोई थी
जिसे तुमने ढहा दिया,
वह उनकी भी माँ थी
जिन्हें तुमने मार दिया!
तुम पोरस के कायर हाथियों की तरह
अपनी ही सेनाएँ रौंदते रहे!
तुम्हारा कुरूप अट्टहास में
शैतानों के दाँत चमक रहे थे!
इन रिक्शों, ट्रकों, मकानों
और लांशों की हड्डियाँ भी
अस्थि कलशों में भरकर
राजधानियों में दर्शनार्थ रखवा दो!
पर इन्हें हिमालय की छाती पर
मत बिखेरना,
बर्फ में आग लग जाएगी!