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पानी-2 / प्रभात त्रिपाठी

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काली कोलतार की सड़क पर
जेठ की तपिश में चप्पलें घसीटते
जब पहुँचा टट्टे के टपरे पर
तो बाँस के स्टैंड पर
टीन की तुरतुरी से
गिलट के मग्गे में पानी पिलाती
औरत का हाथ और गिलट के कंगन

गटगट की आवाज़ में राहत की साँस लेने
और भर पेट पानी पीने के बाद
सोच की रफ़्तार में महज पसीने की चिपचिप
पानी के ख़याल की इस तस्वीर में
एक सच यह भी
इस बेचैन दिमाग में
दिन-रात सुलगती सी

क्या इसी को कहते हैं बड़वानल
क्या लिखूँ इसके बारे में
खाली दिन के एकाकी बिस्तर पर
यह किसका घर
जहाँ अनगिन जलस्रोतों के बीच
जलती रहती है कोई आग
निरंतर