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पानी आजीवन यात्री है / गुल मकई / हेमन्त देवलेकर
Kavita Kosh से
कोई बोझ नहीं मेरे अस्तित्व का
मैं इतना भारहीन
कि कभी भी उड़ सकता हूँ
मेरा पसारा
ठीक मध्यान्ह के वक़्त
अपनी परछाई जितना
कोई जगह बदलने में
कितना वक़्त लगना है मुझे
क्या है मेरे साथ,
बांधना है जिसे...?
किसी दिशा का भी निर्धारण नहीं
कला आध्यात्मिक रूपान्तरण है
मैं एक अदृश्य प्रयोगशाला में
निरंतर खटता हुआ
मैं एक वक़्त पर कई जगहों पर हूँ
और कई समयों में
कितना जोखिम
इस तरह निर्मूल हो रहने में
कि अपनी कोई जगह ही रेखांकित न हो
पर पानी की जड़ें आख़िर कहाँ होती हैं
पानी आजीवन यात्री है।