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पानी का कवित्‍व (मदन सोनी) / प्रेमशंकर शुक्ल

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किसी एक विषय-वस्‍तु पर देर तक टिकने के दृश्‍य हमारी कविता में कम होते जा रहे हैं। ऐसे दृश्‍य जहाँ कल्‍पना या विमर्श का विस्‍तार किसी एक वस्‍तु, भाव, विचार, या प्रत्‍यय की सीमाओं के भीतर, इन सीमाओं के अधिकतम सम्‍भव विस्‍तार में फलित हो सके। ठहरने, एकाग्र होने, बारबार लौटने के दृश्‍य। आविष्‍ट होने के दृश्‍य। पुनरुक्‍ति की प्रक्रिया में अपूर्वकथित के उद्‌बुद्ध हो उठने के दृश्‍य। यह कमी, कहीं न कहीं, सूक्ष्‍मता और गहराई की, कवि-सुलभ तत्त्‍वान्‍वेषी या दार्शनिक दृष्‍टि की कमी की तरह देखी जा सकती है।

    प्रेमशंकर शुक्‍ल की इन कविताओं को पढ़ते हुए अगर इस अल्‍पता की ओर हमारा ध्‍यान जाता है तो इसलिए ये कविताएँ इस दृश्‍य में कम से कम इस एक स्‍तर पर तो हस्‍तक्षेप करती ही हैं कि वे अनन्‍य रूप से एक ही विषय-वस्‍तु पर केन्‍द्रित हैं, और यह विषय-वस्‍तु है, पानी। ज़ाहिर है कि यह एक अत्‍यन्‍त अर्थगर्भी, सघन रूप से श्‍लेषात्‍मक, अनेकार्थक प्रत्‍यय है। वह अस्‍तित्‍व का एक संघटक, संरक्षक, संहारक तत्त्‍व है; उसमें गहराई, विपुलता, असीमता के, वेग और ऊर्जा के, सभ्‍यताओं और संस्‍कृतियों के उत्‍प्रेरक होने के अर्थ निहित हैं। वह एक साथ एक तत्त्‍वान्‍वेषी, सूक्ष्‍मदर्शी और व्‍यापक दृष्‍टि का विषय बनाए जाने की माँग करता है। इसलिए कविता के एक विषय के तौर पर उसको चुनना कविता को एक मुश्‍किल चुनौती के समक्ष ले जाना है। लेकिन उसके अर्थ का एक दूसरा स्‍तर भी है, जहाँ वह आर्द्रता, तरलता, सरलता, चंचलता के भी भाव जगाता है, और तमाम अर्थों से पहले उसका अपना एक असाधारण रूपात्‍मक सौन्‍दर्य भी है, जो कवि-कल्‍पना के लिए कम विमोहक नहीं है। बावजूद इसके कि इन कविताओं में ‘‘गहराई के, ‘‘पैठने और ‘‘डूबने के प्रत्‍यय आते हैं, और वे ‘‘कविता में पानी का तनाव होने की बात भी करती हैं, वे मुख्‍यतः अर्थ के इस दूसरे स्‍तर पर, और पानी के रूपात्‍मक सौन्‍दर्य पर अपने को एकाग्र करती हैं।

     बारबार उसकी ओर लौटती हुईं और हर बार एक अलग कोण से उसको देखती हुई, वे सुन्‍दर चाक्षुष बिम्‍बों और अर्थध्‍वनियों के माध्‍यम से पानी की अनेक लीलामय छवियाँ पेश करती हैं, उसके नये रूपक गढ़ती हैं, और अनेक पुराने रूपकों का आह्‌वान करती हैं : ‘आकाश-गंगा के साथ दूरभाष पर मशगूल बड़ी झील, आसमान को पानी पहनाती हुई हवा को नहलाती हुई बड़ी झील, ‘मछरी की तरह छटपटाती बड़ी झील', ‘बड़ी झील के जल का आचमन कर धीरे-धीरे शहर पर उतरती हुई सन्‍ध्‍या-सुन्‍दरी', ‘बडी झील में बारबार मुँह धोता आसमान', ‘झील के गले में लहरों की हँसी', ‘झील के जल-दर्पण में चेहरा निहारते बादल', ‘झील के पानी में अल्‍सुबह नहाकर निकली हवा', ‘हवा के अलंकार से श्रृंगार करती लहरें', ‘एक बूँद से मुलाकात', ‘झील पानी से भरी परात', ‘अपने पानी में मुस्‍कराती बड़ी झील के डिम्‍पल', ‘धूप के उबटन से चमकता झील का चेहरा', ‘सुनहरी चिडि़या के जूड़े में झील की हथेली पर खिला फूल', ‘पानी की गोद में अपनी फूल-हँसी हँसता हुआ फूल', और ‘‘रूह का पानी, ‘अन्‍तस का पानी', ‘आत्‍मीयता का जल', ‘खुशी का आब', ‘पानी है तो जि़न्‍दगानी है', ‘लहरों में लहू की ललक', ‘स्‍मृति की झील', ‘पानी का कवित्‍व'․․․आदि।

     पानी इन कविताओं में हालाँकि एक जातिवाचक-भाववाचक संज्ञा भी है, लेकिन पानी के इस जातिवाचक-भाववाचक अर्थप्रवाह में कल्‍पना को ढीला छोड़ देने से पहले कवि ने इस प्रवाह को एक ठोस, व्‍यक्‍तिवाचक संज्ञा के तटबन्‍ध के भीतर बाँधा और ‘लोकेट' किया है। भोपाल की बड़ी झील (जिसका अनेकशः जि़क्र ऊपर के उद्धरणों में है) नामक यह व्‍यक्‍तिवाचक संज्ञा अपनी ठोस स्‍थानिकता में, अपनी वास्‍तविक कायिक पहचान में, पूर्णता के साथ उभर सके, इसके लिए कवि ने भरसक प्रयत्‍न किया है। यह प्रसिद्ध स्‍थानिक सन्‍दर्भ, बदले में, इन कविताओं को भी एक स्‍थानिक पहचान देता है। और जैसे यह ‘बड़ी झील' अपने तटबन्‍धों में पानी को बाँधकर उसको एक विशिष्‍ट काया प्रदान करती है, और इस तरह स्‍वयं अपनी पहचान को गढ़ती है, अपने नाम को सार्थक करती है, वैसे ही ये कविताएँ ‘पानी' के अर्थ को एक विशिष्‍ट वाग्‍देह में बाँधने की प्रक्रिया में अपनी पहचान गढ़ने का प्रयत्‍न करती हैं। अपनी विषयवस्‍तु के साथ तन्‍मयता के स्‍तर का अनुराग साधती हुई वे उसका प्रतिबिम्‍ब हो जाने की कोशिश करती हैं, और इस कोशिश में, मानों, पानी और झील के रिश्‍ते के तद्‌भव के रूप में उभरती हैं। यह इसी तन्‍मयता और अनुराग का सहज फल है कि ये कविताएँ पानी को और झील को, पानी और झील के रिश्‍ते को, और इनको घेरते नैसर्गिक और सांस्‍कृतिक परिवेश को, जैसा कि ऊपर के उद्धरणों में भी देखा जा सकता है, ऐसी छवियों में बाँधने की कोशिश करती हैं, जो ‘प्रिय' और ‘सुन्‍दर' हैं, और जिनकी प्रियता और सौन्‍दर्य का स्‍त्रोत उन छवियों को गढ़ने वाले अवयवों के बीच के प्रत्‍याशित और मैत्रीपूर्ण सम्‍बन्‍ध हैं।
 
     वस्‍तु के साथ, या कहें, यथार्थ के साथ, इन कविताओं के रिश्‍ते की प्रकृति यही है : तन्‍मयता, तद्‌भवता, अनुराग। यथार्थ के साथ तनाव, अलगाव, विमर्श साधने, उसको विवेक-विद्ध करने की बजाय वे उसके साथ एकत्‍व की आकांक्षा की प्रतीति दिलाने में अधिक विश्‍वास करती हैं। वे उसके बहुत करीब जाकर उसको पूरी उत्‍कटता के साथ निहारती हैं; उसपर मुग्‍ध और मोहित होती हैं (‘‘झील पर मुग्‍ध / झील को निहारती है आँख और यही नहीं बल्‍कि ‘‘दोनों में इतना अपनापा, इतना एका / कि झील कहो तो आँख सम्‍बोधित हो जाती है / और आँख कहो तो झील बोल पड़ती है / ‘हाँ); वे उपमाओं, रूपकों से उसको अलंकृत करती हैं; उसके सुखों, दुःखों की उत्‍प्रेक्षा करती हैं और उनपर द्रवित होकर उनको जुबान देती हैं; उसमें अपने सुखों, दुःखों, आशाओं, आकाँक्षाओं का आश्रय रचती हैं․․․। यह भी इस आवेश और तादात्‍म्‍य का ही एक लक्षण है कि ये कविताएँ अपने रूपक गढ़ने के लिए उपमेय और उपमान के दूरस्‍थ बिन्‍दुओं को खोजने और उनको एक दूसरे के क़रीब लाने की बजाय अपनी विषयवस्‍तु के भीतर ही, एक तरह की अन्‍तःप्रजनन (इनब्रीडिंग) की प्रक्रिया से ये बिन्‍दु रचती हैं, जिसके अनेक उदाहरणों में से एक को इन पँक्‍तियों में लक्ष्‍य किया जा सकता है ः ‘‘झील एक नाव है / जो धरती में तैर रही है

     और यह अन्‍तःप्रजनन सिर्फ़ कविताओं की विषय-वस्‍तु को ही विकसित नहीं करता, बल्‍कि स्‍वयं इन कविताओं की अपनी बनावट को, उनकी शैली को भी गढ़ता चलता है। विषय-वस्‍तु के गुण ही जैसे कविताओं की लयगति के, उनकी संरचना या निर्मिति के गुण बन जाते हैं। वे कुछ इस तरह पानी से आविष्‍ट हैं कि पानी यहाँ कवि-कल्‍पना को भिगोता और द्रवित तो करता ही है, उसको वह प्रशमित, मन्‍थर गति भी प्रदान करता है (‘‘पानी बह रहा है मन्‍द-मन्‍द) जो झील के पानी की ख़ासियत होती है। वह उनके अर्थ-प्रवाह को झील पर तैरती नौका की गति प्रदान करता है। यह द्रवणशीलता और आर्द्रता, यह सन्‍तरणशील, मन्‍थर गति, इन कविताओं को एक ऐसी निर्मिति में ढालती हैं जो अपनी देहयष्‍टि की गद्यात्‍मकता के बावजूद अपने स्‍वभाव में गीत के बहुत क़रीब की लगती है।

     यह अकारण नहीं है कि गीत, संगीत, छन्‍द, गाने, गुनगुनाने आदि के अभिप्राय कविताओं के दिल-दिमाग पर छाये हुए हैं : ‘‘इस तरह / बड़ी झील को निहारना / संगीत हो जाता है, ‘‘चलो मझधार में / मीठे गीत गा-गा कर / हम पानी का मन बहलाते हैं, ‘‘बड़ी झील गगन / संगीत की महफि़ल सजाती हुई, ‘‘कोई प्राचीन लिपि / करुणा का बहुत सुन्‍दर छन्‍द / बुदबुदा रही है, ‘‘पानी प्‍यार है / जो अनुरागी चित्त्‍ा में बजता है, ‘‘वे जब-तब रोचक जलगीत गाती रहती हैं, ‘‘गीत के लय की / मेरे भीतर लहर उठ रही है लगातार, ‘‘पानी के बुलबुले / ख़ुशी के / ख़्वाब के / गीत गुनगुनाकर बुझ गए, ‘‘दर्द भरे गीतों को सुनकर / आँख की कितनी भी गहराई में हो पानी / छलक आता है बनकर आँसू / और गीतों में दर्द का रंग / गाढ़ा करता रहता है, ‘‘चिडि़याँ जब पानी के मीठे-मीठे पद गाती हैं, ‘‘अपनी चाँदनी के लिए / पानी मालकौंस गाता है, ‘‘धूप एक छन्‍द है, पानी जितना पुराना वह गीत, ‘‘मुझे कोई प्राचीन लिपि में धड़कता हुआ / छन्‍द गुनगुनाना है, ‘‘उसकी पत्त्‍ाियों के साथ / विरह के गीत झरते हैं, ‘‘पानी गावत राग मल्‍हरवा आदि। इस गीतात्‍मक संवेदना को सिर्फ़ इन अभिप्रायों में ही नहीं, कविताओं की समूची भाषा में अनुभव किया जा सकता है, उसके आर्द्र और तरल शब्‍दों और वाक्‍य-विन्‍यास में। और यह अकारण नहीं, बल्‍कि कवि की इस आकाँक्षा के सर्वथा अनुरूप है कि ‘‘मैं जटिल वाक्‍यों में / पानी का गुन मिलाना चाहता हूँ गगन लहराती झील के लिए / भाषाओं में रखना चाहता हूँ / माननीय जगह/जिससे लिपियों में तरलता हो / सरलता हो संवाद में। मानों कविता को स्‍वयं ही अपनी भाषा की इस आर्द्रता का अहसास है, जब वह कहती है कि ‘‘झील / लहराता हुआ / एक शब्‍द / कि जिसे देखकर / कविता के मुँह में / पानी आ जाय, बशर्ते कि हम इस ज़ाहिर सी व्‍यंजना को अलक्षित न करें कि ‘‘कविता के मुँह में पानी का अर्थ कविता की ‘‘जुबान (भाषा) में पानी (भी) है।

     इस तरह यह ‘‘पानी का कवित्‍व है, और सिर्फ़ इस बात में नहीं है कि ये कविताएँ पानी के बारे में हैं, बल्‍कि वह इस बात में भी है कि वे पानी और कवित्‍व को एक दूसरे के करीब लाती हैं, और दोनों के बीच अन्‍तर्क्रियाशील रिश्‍तों की उत्‍प्रेक्षाएँ भी करती हैं। ‘‘कविता इन कविताओं में सर्वव्‍यापी है; वह ‘‘कविता के उल्‍लेखों में तो है ही (यथा- ‘‘कविता के भीतर / पानी का तनाव है, ‘‘बड़ी झील / कभी सुन्‍दर कविता पंक्‍तियों पर / देती हुई दाद, ‘‘लहरें फाँस लेती हैं / कवि का मन, ‘‘मेरे खयाल में / पानी का / कवित्‍व जगमगाता है, ‘‘प्‍यास में / पानी ही कविता-कथा है, ‘‘पानी में / सुन्‍दर कविता), लेकिन इससे ज्‍़यादा वह इन तमाम कविताओं में व्‍याप्‍त उस केन्‍द्रीय चेतना (जिसे हम इन कविताओं का स्‍वत्‍व कह सकते हैं) के नाते है जो अद्वितीय रूप से कविता की चेतना है। इस तरह, वह वहाँ पर सिर्फ़ है नहीं बल्‍कि अपने होने के अहसास के साथ है, पानी के सक्रिय सान्‍निध्‍य में होने के अहसास के साथ, जहाँ वह पानी से व्‍याप्‍त और संस्‍कारित होकर होकर कृतज्ञ भाव से उसको भजती है, उस पर अपने रूपकों-उपमाओं के नैवेद्य अर्पित करती हुई।