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पानी के बुलबुले / फ़ेर्नान्दो पेस्सोआ
Kavita Kosh से
आग के एक बड़े अध-मिटे धब्बे-सा
डूबता सूरज
ठहरे बादलों में कुछ देर ठहर जाता है ।
साँझ के मौन में दूर कहीं
सुनता हूँ सीटी कि धीमी आवाज़ ।
कोई रेलगाड़ी जा रही होगी ।
इस पल में
एक अस्पष्ट-सा विरह मुझे घेर लेता है
साथ ही एक अज्ञात और शान्त-सी चाह
जो आती है, जाती है ।
ऐसे ही, कभी, नदियों की सतह पर,
होते हैं पानी के बुलबुले
जो बनते हैं फिर फूट जाते हैं ।
और उनका कोई अर्थ नहीं होता
सिवाय पानी के बुलबुले होना
जो बनते हैं फिर फूट जाते हैं ।