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पानी / नीता पोरवाल
Kavita Kosh से
तनिक सोचो तों
अब किस पर लिखोगे
तुम कोई गीत भला?
क्या लिखोगे
शुष्क हुई शस्य श्यामला पर
या लिखोगे
बुझ चुके चूल्हों की कालिमा पर
सोंधी माटी की महक
कैसे सहेज पाओगे तुम?
न कूक होगी कोयल की
बसंत फाग कजरी की न कोई गूंज होंगी
भूखी चीलों के रुदन पर
क्या कोई गीत रच पाओगे तुम?
बहुत चीख चुके समवेत स्वर में
क्योंकि मुद्दे बहुत थे झंझट बहुत थे
शस्य श्यामला धरा को तुम शुष्क करके
शब्दों को किंचित छू भी पाओगे तुम?
मुमकिन है कि ढूंड लोगे
स्वप्न में दरख्तों की छाँव बेशक
पर आँख खुलते ही
रेत के उड़ते गुबारों में
खुद को गुमशुदा देख पाओगे तुम?