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पाल में पकते ये बच्चे / प्रज्ञा रावत

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पाल में पकते ये बच्चे
सब्ज़ियों को उनके स्वाद
से नहीं पहचानते
नाम से नहीं जानते
नहीं जानते कि बनने तक
कैसे-कैसे रंग बदलती हैं सब्ज़ियाँ

नहीं पहचानते करेले, ककोड़े को
उनके रंग-रूप को
नहीं जानते कि उसके हरेपन में
खुरदुरे और काँटेदार होने का
क्या मतलब है
 
नहीं जानते कि एक ही मिट्टी में
पनपते हैं मीठे और कड़वे फल-फूल
कि मीठे के साथ कड़वा कितना ज़रूरी है

बच्चे पढ़ते हैं किताबों में
मिट्टी के बारे में
देखते हैं प्रयोगशालाओं में
चल रहे तरह-तरह के प्रयोग
उन्हें अहसास ही नहीं कि मिट्टी को
छूते ही गरमा जाता है
रगों में बहता ख़ून
 
कि सूखी मिट्टी में पानी डालते-डालते
पौधों के साथ-साथ
कैसा सींचा जाता है अन्तर्मन

बच्चो! हमने ही दिया है
तुम्हें ये संसार
तुम्हें फलने-फूलने और पकने ही नहीं दिया
जीवन के वृक्ष की लचीली डालों पर
हम बनाते जा रहे हैं तुम्हारे लिए
वातानुकूलित कमरे

तुम्हारी आँखों के सामने फैला दिया है
हमने स्क्रीन का जादू
कि अब तुम सारे संसार को
सिर्फ़ इसी के सहारे जान सकोगे

तुम्हें मशीनों के हवाले कर
पलने-बढ़ने छोड़ दिया
जीवित स्पर्शों के बजाय दी मशीन
खुले-खिले मैदानों की जगह दीं
जालियाँ-दर-जालियाँ
पक्षियों के कलरव और गर्जनाओं
की जगह दीं कृत्रिम आवाज़ें

बच्चो! हमने अपने विकास
के नाम पर तुम्हें ही लूट लिया है
तुम्हारे लिए छोड़ा नहीं
ज़मीन का कोई हरा-भरा टुकड़ा
छोड़ा नहीं कोई ऐसा बीज
जिसे बोकर तुम कुछ अपनी
तरह उगा सको

बच्चो! हमें माफ़ नहीं करना
कड़ी से कड़ी सज़ा देना हमें
लेकिन उस जीवन को खोजकर लाना
जो हमने तुम्हें नहीं दिया।