पावन शीतल चन्दन हो तुम / सरोज मिश्र
बिरह बेल चढ़ मेरे मन पर,
बाँध रही जब भुजपाशों में।
छवि सुधियों में जो सहलाती,
पावन शीतल चन्दन हो तुम।
देह तुम्हारी सुमन वल्लरी,
सांस सांस में कस्तूरी है।
नाप रहा तिल घट ओठों का,
प्यास पथिक में क्या दूरी है।
गर्म हवा की चादर ओढ़े,
थककर व्याकुल हो जाती जब।
धूप के झुलसे चहरे पर तब,
साँझ का मीठा चुम्बन हो तुम।
बादल बाँधो मत वेणी में,
उमड़ घुमड़ कर लहराने दो।
गाँव गली हर उमर डगर को,
पागल हो कर कुछ गाने दो।
अलसाई रातों को मेरी,
जिसने सरगम सौंप दिये थे।
शुभ दिन का सौभाग्य लपेटे,
बिछुआ पायल कंगन हो तुम।
कितने बार विरागी होकर,
तोड़े ये अनुरागी बन्धन।
किन्तु करूँ क्या हाथ पकड़ता,
अंतर निहित अलौकिक दर्शन।
भौतिकता के जादू टोने,
सहज समर्पित करे जहाँ हैं।
पारिजात की रीति सँजोये
प्राणों के नन्दन वन हो तुम।