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पावस के घन / अनिल शंकर झा

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आशा में ताकौं निहारौं गगन,
कोन देश भुतलैलै पावस के घन?

धुरदा सें अटलोॅ छै महलो-अटारी,
जादुगर खोलनें छै फणिधर पेटारी।
गाछी के पात-पात मदहोश, हतभाग,
धरती नें मांगै जल करतल पसारी।

प्याल विष झुलसाबै रही-रही तन,
कोन देश भुतलैलै पावस के घन?

सुखलोॅ छै नदी-नाल, खाली छै ताल,
कोटर में बंद बिहग पूछै सबाल।
हवा आरो सूरज के कैहनोॅ ई होड़,
गर्मी नें धीरज के बाँही मरोड़।

पूछै, कहिया तक सहबै ई जलन?
कोन देश भुतलैलै पावस के घन?

जागै छै दुपहर तेॅ औंधै छै गाँव,
टुकुर-टुकुर ताकै छै बरगद के छाँव।
बिन्डुवोॅ अन्धड़ में भुतहा बैहार,
बरसें रे निर्मोही ई रं नै मार।

धरती केॅ जीवन दे हरसाबें मन,
कोन देश भुतलैलै पावस के घन?