पावस साँझ / मोहन अम्बर

बादरवा झाँके री, बादरवा झाँके री,
धरती के पाहुन ये बादरवा झाँके री।
पश्चिम से आती है सूरज की गरमाई,
पुरवाई लाती है मन मोही नरमाई,
ऐसे में अनुभव कर तरूणाई जीवन में,
पीपल के नीचे उस मन्दिर के आँगन में,
गरमी औ नरमी की बातों के लहजे में,
गाँवों के बूढ़े मिल तम्बाकू फाँके री,
बादरवा झाँके री।

संध्या के अधरों पर हिंगरू-सी लाली है,
पथ पर गुलमुहरों ने चादर-सी डाली है,
लीची के पेड़ों पर मदमाया यौवन री,
बचपन को लगता है अब आया जीवन री,
अधपाके जामुनवा, कोयल के कहने से,
तोतों की टोली ने मस्ती से चाखे री,
बादरवा झाँके री।

इन्द्रासन झुक आये, ऐसी मधु बेला है,
पनघट पर पायल औ बिछियों का मेला है,
कृषकों को माटी का गीलापन कंचन है,
विरहिन को नयनों का पानी ही साजन है,
मौसम है ऐसा हर गदराई तरूणी को,
अनव्याहा लड़कापन चितवन से ताके री,
बादरवा झाँके री।

चिड़ियों की सुनसुन कर नीड़ों में आवाजें,
पी का पथ जोहे मैं बैठी हूँ दरवाजे,
सुधि ऐसी उमगी है अरूणारा आंगन है,
मेघों की गर्जन से तन-मन में सिहरन है,
लेकिन है खेतों पर लम्बी-सी दूरी पर,
मेरे वे जीवन धन बालमवा बाँके री,
बादरवा झाँके री।

सावन अब आयेगा मयके खुलवायेगा,
लेकिन कंगालिन के मन को क्या भायेगा?
जब तक री श्रम धन से पूंजी की दूरी है,
सपनों की बातें ये तब तक अधूरी है,
हाटों में जाती हूँ सुन-सुन कर आती हूँ,
जूनी इस चुनरी को रेहन क्या राखें री,
बादरवा झाँके री।

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