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पिंजड़ा / रामकृपाल गुप्ता
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शून्य के पाश कसे आते हैं
बेचारा मन सिकुड़ा जाता है।
कूल से कगार बड़ी दूर बड़ी दूर थे
नदिया लहरायी भर आयी थी।
झूमकर भँवर से उठी थी लहर
यह वह कूल चूम आयी थी
कूल पास और पास आ गए
धार और सूखती चली गई
चल न सकी जी भर मचल न सकी
लहर उठी टूटती चली गई
पिंजड़े के बंदी घर में सुगना
विकल-सा पंख फड़फड़ाता है
बेचारा मन सिकुड़ा जाता है।