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पिंजर बंद जिदंगी / मनीष मूंदड़ा
Kavita Kosh से
अक्सर हम अपनी जि़ंदगी बंद पिंजरों में गुजार देते हैं
ज्यादा फकऱ् कहाँ होता हैं
पिंजरबंद चिडियाँ और हम में
हम और हमारी सोच
नजरबन्द रहते हैं
मजबूरियों की सलाखों में
समाज के दकियानूसी संकुचन में
अपने झूठे अहम की चार-दिवारी में
अपनी अपनी हदबंदियों के दायरे खींच
अपने अनसुलझे सवालों के बीच
ना सवाल करने की कोशिश
ना जवाब पाने के ख़लिश
साँसों की आवाजाही से भी हमारा रिश्ता सिफऱ्
एक जि़ंदा लाश बन, जंजीरो में जकड़े रहने का रहता है
कहाँ छोड़ आए हम अपनी उड़ानों के पंख
ना जाने कब और कैसे भूल गए अपनी स्वतत्रंता के रंग
वो बेबाक इरादे,
वो सपनों की बातें
अब सिफऱ् डर हममें पलता हैं
हमारी जि़ंदगी का कि़स्सा
बस इन सब के बीच सहमा सहमा-सा चलता है