पिता इंतज़ार कर रहे हैं / गौरव पाण्डेय
पिता आकाश देखते
और हमें हिदायत देते कब तक लौट आना है
वो हवाओं को सोखते
और तमाम परिवर्तनों को भाँप लेते
पिता को बादलों पर भरोसा नहीं है
जैसे लोगों को अपने पट्टीदारों और पड़ोसियों पर नहीं होता
फिर भी उनका मानना है
कि हमारा कोई न कोई तो नाता है ही
इसलिए जरूरी है मौसम दर मौसम एक चिट्ठी का लिखा जाना
बादलों के रंग और रफ्तार
पिता खूब समझते हैं
उन्होंने बता दिया था
धान की फसल कमजोर रहेगी इस बार
हाँ तिल और बाजरे से जरूर उम्मीद रहेगी
पिता चिंतित हैं
आम के बौर अब पहले की तरह नहीं आते
महुआ से कहाँ फूटती है अब वह गंध
जामुन का पुश्तैनी पेड़ अर अरा के गिर पड़ा
और सूख गया तालाब इस बार कुछ और जल्दी
पिता प्रतिदिन पड़ रही दरारों से जूझते हैं
और लगातार कम हो रही नमी से चिंतित रहते हैं
हम जानते हैं
पिता के मना करने के बावजूद
दर्जनों बार मोल लगा चुके हैं ब्यापारी
आंगन की नीम का
जबकि पिता इंतजार कर रहे हैं
कि एक दिन हम सभी समस्याओं का हल लेकर
लौटे आएंगे शहर से
और उस दिन पुरानी शाखाओं पर
एक बार फिर खिल उठेंगें नये-नये पत्ते...