भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पिता और झोला / शशांक मिश्रा 'सफ़ीर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब भी घर जाता हूँ छुट्टियों में,
माँ रोक देती है बाज़ार जाने से।
मुझे नहीं आते बाज़ार के तौर तरीके।
अक्सर पिता जी जाते हैं बाजार।
नही भूलता उनसे कभी झोला।
कहते हैं आसानी होती है
सामान सहेजने में।
जिसमें छोटी-छोटी पन्नियों में
एक साथ रखे जाते हैं सारे सामान।
सब्जी, मिर्च, नमक, शक्कर।
जो पृथक हैं महीन पन्नियों के सहारे।
जहाँ सुरक्षित रहता है,
अलग अलग उनका गुणधर्म।

मुझे एक से ही लगते हैं दोनो-
पिता और झोला।
पिता,
जहाँ परिवार अलग-अलग पन्नियों में सुरक्षित है
अपनी स्वतन्त्र सीमाओं के साथ।

झोला गिर जाये टूट कर,
खरोंचे आ जायें
पर सुरक्षित रहती हैं पन्नियाँ,
उसमें रखे सामान के साथ।
दोनों ही मशक्कत करते हैं,
सुरक्षित रखने में पन्नियों की महीन दीवारें।